रविवार, 26 अप्रैल 2009

मातृत्व की महिमा से छल

एटा जेल में हिरासत में रह रहे अपने पुत्र वरूण गाँधी से मिलने के लिए पहुँची मेनका गाँधी को जेल प्रशासन ने नियमो का हवाला देते हुए मिलने नहीं दिया। राजनैतिक कारणो के चलते मायावती सरकार ने जिस तरह वरूण गाँधी पर रासुका लगाया है, उसे लेकर व्यथित और नाराज़ चल रही मेनका गाँधी का इससे और अधिक नाराज़ होना स्वाभाविक था। उन्होने खिन्न होकर कहा कि मायावती खुद माँ होती तो बेटे से नहीं मिलने देने के दर्द को जानती मेनका के इस कथन पर मायावती ने तुरन्त पलटवार किया कि माँ की ममता से सराबोर होने के लिए माँ होना जरूरी नहीं है। उन्होने मदर टेरेसा का उदाहरण दिया जिन्होने माँ नहीं होने के बावजूद करोड़ो लोगो को माँ का प्यार दिया। मायावती का कहना था कि उन्हे करोड़ो माँओं की चिन्ता थी इसलिए उन्होने वरूण पर रासुका लगाया है। वे ये कहने से भी नहीं चूकी कि मेनका गाँधी ने अपने बेटे को अच्छे संस्कार दिये होते तो वह आज जेल की सलाखों के पीछे नहीं होता। राज्य में कानून व्यवस्था बनाये रखने की अहमियत पर जोर देते हुए उन्होने कहा कि वे इसमें किसी को कोई रियायत नहीं देगी–भले ही वह किसी राजा–महाराजा का बेटा हो या गाँधी परिवार का। इस तरह मायावती और मेनका दोनो ने वरूण गाँधी की आड़ में अपनी–अपनी तरह मातृत्व को परिभाषित किया।  एक माँ के रूप में मेनका की तकलीफ समझी जा सकती है। ऐसी कौनसी माँ होगी जो अपने बेटे को जेल की सलाखो के पीछे देखना चाहेगी। उस पर सितम यह कि जेल की सामान्य परम्परा के विपरीत उसे अपने बेटे से मिलने तक नहीं दिया जाए। वरूण गाँधी का अपराध चाहे जितना गम्भीर हो लेकिन है वह जबानदराजी ही। यदि ऐसे बयानो के आधार पर ही राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू होता तो आज देश के तीन चौथाई से अधिक राजनितिज्ञ जेलो में सड़ रहे होते। स्वयं मायावती की पार्टी के ही कितने विधायक इससे अधिक जघन्य कृत्य करके छुट्टा घूम रहे हैं–बल्कि कुछ तो मंत्री पद को भी सुशोभित कर रहे है। ऐस में मेनका गाँधी की तकलीफ जायज है।  लेकिन मातृत्व को लेकर मेनका गाँधी ने मायावती को जो उलाहना दिया है वह उलाहने से अधिक गाली है। यह एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री का अपमान है। उसकी कूख को लेकर भद्दी से भद्दी गाली। मेनका ने ऐसा कह कर अपनी भड़ास भले ही निकाल ली हो लेकिन इस बयान से उनका कद घटा है। मेनका वरूण की माँ होने के साथ–साथ एक जनप्रतिनिधि और देश की जानी–मानी जन्तु–पे्रमी भी है। संजय गाँधी की असामयिक मृत्यु के बाद राजनीति में सक्रिय रहते भी उन्होने जीव–जन्तुओं के प्रति जो करूणा और लगाव दर्शाया है वह उनके स्त्रीत्व को माँ की गरिमा से दीप्त करता है। लेकिन वरूण की गिरतारी के बाद आया उनका बयान उन्हे एक मामूली माँ सिद्ध करता है। हर माँ की तरह वरूण मेनका को प्यारे हों और जेल अधिकारियो द्वारा उनके न मिलने देने को लेकर वे व्यथित हों यह तो समझ में आता है, लेकिन सम्प्रदायों को भड़काने वाले वरूण के बयान में उन्हे कोई खोट ही नज़र नहीं आये यह हरगिज़ समझ में नहीं आता। इसमें उनके निहितार्थ साफ–साफ झलकते है। जो मेनका गाँधी दुधारू पशुओं के दूध पीने को खून पीने के बराबर मानती रही हो (शिशु पशुओं के लिए दूध की मात्रा कम पड़ जाने के कारण) उन्हे वरूण गाँधी का हिंस्र साम्प्रदायिक बयान विचलित तक नहीं करता। मूक जीव–जन्तुओ के प्रति गहरी सहानुभूति महसूस करने वाली मेनका गाँधी की दृष्टि में क्या वरूण गाँधी के द्वारा प्रताडि़त समुदाय के लोग साँप और बिच्छुओं से भी बदतर हैं? खेद की बात है कि वरूण एपिसोड में मेनका गाँधी ने कुछ भी ऐसा कहा और किया नहीं जो एक माँ के रूप में उनकी वृहत्तर भूमिका को दशार्ता हो। इस समूचे प्रकरण में उन्होने अपने आपको पुत्र मोह से ग्रस्त एक अदना माँ सिद्ध किया है। जो अपने जनप्रतिनिधित्व के दायित्वों और सहज प्राणी प्रेम तक को बिसरा रही है। इतिहास में पन्ना धाय का उदाहरण दर्ज है जो अपने त्याग के कारण एक सामान्य माँ की भूमिका से ऊपर उठकर राष्ट्र माँ का गौरवपूर्ण पद हासिल करती है। इसके विपरीत वरूण मामले में मेनका गाँधी ने काफी कुछ खोया है। मुक्तिबोध ने कामायनी के अपने पुर्नमूल्याकन में श्रद्धा के चरित को लेकर एक महत्वपूण प्रश्न उठाया है कि वह सर्वत्र एक औसत नारी का सा व्यवहार करती है। उसके चरित में विश्व मानवी का कोई आयाम नहीं है। क्या वरूण प्रकरण में यहीं प्रश्न मेनका गाँधी की जनप्रतिनिधि की भूमिका को लेकर नहीं पूछा जाना चाहिए?  
अपने पलटवार में मायावती मेनका गाँधी पर हर तरह भारी पड़ी है। उनके बयान के तमाम मुद्दे गौर तलब है। निश्चय ही मातृत्व का गहन आशय सन्तति प्रजनन तक सीमित नहीं है। वह तो केवल शुरूआत है उसकी असली महिमा तो मातृत्व की वृहत्तर व्याप्ति में है। मदर टेरेसा उस वृहत्तर व्याप्ति की बेहतरीन मिसाल है। उन्होने अपने मातृत्व को पीडि़त मानवता पर निछावर कर दिया और इस तरह महिमाशाली माँ के चरित को उपलब्ध किया। इसीलिए कूख से जन्म नहीं देने के उपरान्त भी वे करोड़ो की माँ बनी। मायावती का यह पलटवार भी गौर के काबिल है कि मेनका ने एक अच्छी माँ के संस्कार दिये होते तो वरूण आज जेल कि सलाखो के पीछे नहीं होता। राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर किसी को कोई रियायत नहीं देने कि बात भी उनके प्रशासकीय दमखम को दर्शाती है। अपने ही दल के सांसद और विधायको के विरूद्ध उन्होने कठोर कानूनी कार्यवाही और सोनिया गाँधी की रैली को प्रतिबंधित कर मायावती ने जिस साहस और निडरता का परिचय दिया वह अपनी मिसाल आप है।  
लेकिन मायावती का यह कहना कि उन्हे करोड़ो माँओं की फिक्र थी इसलिए उन्होने वरुण गाँधी पर रासुका लगाया – किसी के गले नहीं उतरता। असलियत यहीं है कि मुलायम सिंह की और लगातार झुकते मुस्लिम मतदाताओं की रोकथाम के लिए ही उन्होने वरूण गाँधी पर रासुका आयद किया। आज मायावती वरूण गाँधी पर रासुका लगाने को जायज ठहराते हुए मेनका गाँधी को सीख दे रही है कि उन्होने अपने बेटे को अच्छे संस्कार नहीं दिये इसलिए वह जेल में है लेकिन लगता है मायावती आपबीती भूल गई हैं। 1991 में मायावती ने बुलन्दशहर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। मतदान वाले दिन मायावती जब एक गाँव में मतदान केन्द्र पर पहुँची तो उन्हे लगा कि फर्जी मतदान हो रहा है। आवेश में मायावती ने आव देखा न ताव और पीठासीन अधिकारी को गालियाँ बकते हुए थप्पड़ मार दिया। उत्तरप्रदेश में उस समय कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार ने मायावती के विरूद्ध सरकारी काम में बाधा डालने और लोक सेवक से मारपीट करने को लेकर आपराधिक मुकदमा दर्ज किया और बाकायदा रासुका लगाया। मायावती को इससे लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा। वे जब जेल में परेशान हो गई तब बसपा प्रमुख कांशीराम को प्रधानमंत्री नरसिंह राव से मिलकर मायावती की रिहाई के लिए गुहार लगानी पड़ी। उस समय लोकसभा में बसपा के तीन सदस्य थे। जो अल्पमत राव सरकार का समर्थन कर रहे थे। इसी दबाव के चलते नरसिंह राव ने कल्याण सिंह से अपील की कि वे एक दलित की बेटी पर लगाये गये रासुका को हटालें। राव के अनुरोध पर कल्याण सिंह ने जब रासुका हटाया तब कहीं जाकर मायावती जेल की सलाखो से बाहर आ पाई। रासुका का इस्तेमाल राजनेता अक्सर अपने निहित हितों के लिए करते रहे हैं। लेकिन 18 साल पुरानी आपबीती को भूलकर मायावती आज वरूण गाँधी पर लगाये रासुका को जायज ठहरा रही है।  
यहीं वह कोण है जहाँ तमाम चीजो के मायने बदल जाते है। अपने निजि जीवन और राजकीय कृत्य में मायावती ने एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिससे उनका मातृत्व से सराबोर होने वाला चरित उजागर हो। इसके विपरीत सहज मानवीय करूणा और कृतज्ञता से वे कोसो दूर है। एक चतुर और अचूक अवसरवादी राजनीतिज्ञ की तरह वे केवल चीजों को अपने हक में इस्तेमाल करना जानती है। मदर टेरेसा के उदाहरण को भी मायावती ने इस्तेमाल किया है। उनके आदर्शो को जीने में उनकी कोई आस्था नहीं है। वे हर चीज का इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने में और अपने आप को बचाने में करती रही है। इसमें बाधा आने पर वे किसी भी हद तक जा सकती है। वह पीठासीन अधिकारी को गाली बकते हुए थप्पड़ मारना हो या अपनी ही पार्टी के सांसद और विधायको को जेल भिजवाना। मेनका गाँधी हो या मायावती दोनो ही वरूण मामले में मातृत्व की महिमा से छल कर रही है। उनके लिए मातृत्व जीने का गौरव पूर्ण आयाम नहीं बल्कि कुछ हासिल करने का जरिया भर है।




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