सोमवार, 22 जून 2009

प्रेम में

प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है  काँपता है
और शिथिल हो जाता है

प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार

एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में

सोमवार, 1 जून 2009

ख़तरा

अब मैं आपको कैसे समझाऊँ
हर ख़तरे की शुरुआत यहीं से
इसी नामालूम ढंग से

गृहस्थ की भागमभाग में
एक आदमी भूल रहा है अक्सर
देहरी पर खड़े बच्चे की
मुस्कान का उत्तर

एक पढ़ा-लिखा आदमी
रोज़-रोज़ जा रहा है दफ़्तर
सिटी बस में भेड़-बकरियों की तरह ठुँसकर

एक आदमी आगे बढ़ रहा है चुपचाप
अनदेखी करते हुए
सड़क पर कुचली लाश को

मौसम को बेमानी करते हुए
एक आदमी गलत-सलत कर रहा है
पेड़ पात फूलों के मायने

एक आदमी व्यग्र है
निचोड़ लेने को आख़िरी बूँद
बादल की कूख से