पिछले रविवार को न्यूयार्क में उस समय अचानक तनाव की स्थिति पैदा हो गई जब ग्राउण्ड जीरो स्थल के समीप एक मस्जिद के निर्माण को लेकर समर्थन और विरोध में बेहद करीब से दो रैलियां गुजरीं। ग्राउण्ड जीरो वह जगह है जहाँ वल्र्ड-ट्रेड-सेन्टर स्थित था। 11 सितम्बर 2001 को वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला कर आंतकवादियों ने उसे ध्वस्त कर दिया था। इस हमले में 2700 से अधिक लोग मारे गये थे। उसी वल्र्ड-ट्रेड-सेन्टर के ग्राउण्ड जीरो स्थल के समीप कोर्बाडा इनिशिएटिव नामक संस्था एक ऐसा इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र बनाना चाहती है जो आंतकी विचारधारा को बदलने के साथ-साथ समुदायों के बीच सौहार्द और सांस्कृतिक बहुलता को भी बढ़ावा दे। इस संस्था का नाम भी दसवीं सदी के उस स्पेनिश शहर के आधार पर रखा गया है जहाँ कभी ईसाई, यहूदी और मुस्लिम समुदाय के लोग मिल-जुल कर रहते थे। 10 करोड़ अमेरिकी डालर वाली इस परियोजना के प्रमुख कुवैती मूल के इमाम फैसल अब्दुल राउफ का कहना है कि प्रस्तावित इस्लामी केन्द्र पूरे न्यूयार्क वासियों के लिए होगा।
लेकिन इस इस्लामी केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव आते ही समूचे न्यूयार्क में तीव्र विरोध शुरू हो गया। इस बारे में जनमत जानने के लिए ‘सिएना रिसर्च सेन्टर इन्स्टीट्यूट’ द्वारा पिछले हते करवाये गये एक सर्वे में पाया गया कि न्यूयार्क में रहने वाले 68 फीसद लोग इस्लामी केन्द्र कें निर्माण के विरूद्ध हैं। विरोध करने वालों में रिपब्लिक पार्टी की प्रमुख सारा पैलिन, रूडी गुइलियानी और न्यूट गिंगरिच जैसी राजनैतिक हस्तियाँ शामिल हैं। उधर डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और सीनेट में सदन के मुखिया हैरी रीड खुलकर अपना विरोध जता चुके है। इन सबका मानना है कि वल्र्ड ट्रेड सेन्टर के स्थान पर किसी भी इस्लामी केन्द्र के निर्माण की पेशकश न केवल अमेरिका के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसी होगी बल्कि यह ज़िहाद और इस्लामी विस्तारवाद की ही जीत होगी।अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा शुरूआत में इस प्रस्ताव के समर्थक थे लेकिन विरोधी दल की नेता सारा पालिन ने जब इस समर्थन के लिए उन्हे ललकारा तो ओबामा पीछे हट गये। अलबत्ता अमेरिकी समाज के दबाव के बावजूद उन्होने यह कहने का साहस जरूर दिखाया कि मुस्लिमों को भी सभी मनुष्यों की तरह अपने धर्म पालन का अधिकार है।
11 सितम्बर की दुखद स्मृति को भुलाना अमेरिका के लिए आसान नहीं है। लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में ईराक और अफगानिस्तान को जिस तरह तबाह किया गया वह भी कम भयानक नहीं था। इस घटना के बाद मुस्लिम नागरिको के साथ अमेरिका और अन्य कई यूरोपीय देशों में जिस तरह का बर्बर सलूक किया गया वह भी दरिन्दगी की मिसाल है। इस घटना के बाद इस्लाम तो जैसे आंतक का पर्याय ही हो गया। ऐसे में 9 साल गुजर जाने के बाद भी अमेरिका का उस इतिहास ग्रंथि से पीड़ित रहना एक अपशकुन की तरह है। क्योंकि जिन्दा कौमें अतीत से चिपकी नहीं रहतीं। वे तमाम पिछली भूल-गलतियों को बिसरा का आगे बढ़ती हैं और भूल सुधार से भी गुरेज नहीं करती।
न्यूयार्क में इस्लामी केन्द्र की पेशकश और उसके निर्माण के विरोध को लेकर चल रहे घटनाक्रम का सबसे दुखद और निन्दनीय पहलू है उसे एक मस्जिद के निर्माण की तरह प्रचारित करना। यह सच है कि इस इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र में एक इबादतगाह भी होगी। लेकिन इसे एक मस्जिद का नाम देना अमेरिकी समाज के धार्मिक कठमुल्लेपन को जाहिर करता है। इसिलिए परियोजना की सह-निर्माता डेजी खान ने लोगों की प्रतिक्रिया को यहूदी विरोधी करार दिया है। एबीसी के कार्यक्रम ‘दी वीक’ में उन्होने साफ कहा कि यह इस्लाम के प्रति फोबियो नहीं है, बल्कि इस्लामोंफोबिया है- मुस्लिमों के प्रति खुल्लम-खुल्ला नफरत का इजहार। वाशिंगटनपोस्ट को दिये अपने इन्टरन्यू में उन्होने कहा कि दरअसल इस्लामी केन्द्र के विरोध के लिए रिपब्लिक पार्टी के नेता जिम्मेदार हैं। वे अपने निहीत राजनैतिक स्वार्थ के लिए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं- जिसके बहुत दूरगामी, अनिष्टकारी, साम्प्रदायिक परिणाम हो सकते हैं।
इतिहास गवाह है कि अपने साम्राज्यवादी इरादे और व्यावसायिक हितों के लिए अमेरिका पेट्रो-देशो में कट्टरवादी ताकतों को तरजीह और पनाह देता रहा है। 11 सितम्बर 2001 को उन्ही शक्तियों ने पलटकर अमेरिका पर वार कर दिया है तो अमेरिका किस नैतिक हक से उनका विरोध कर सकता है। ओसामा बिन लादेन हो या सद्दाम हुसैन उन्हे हीरो बनाने का काम अमेरिका ने ही किया था। मुस्लिम देशों से आगे बढ़कर आज आंतकवाद समूचे विश्व को चुनौती दे रहा है तो उसके लिए परोक्ष रूप से अमेरिका ही जिम्मेदार है। अफगान सीमा पर सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन आज पलटकर अलकायदा के सरगना हो गये है।
सवाल यह भी है कि कथित इस्लामी आंतकवाद को कोसने के बजाए क्या सकारात्मक शक्तियों को बढ़ावा देना उचित नहीं होगा? एक ऐसे समय में जब तमाम आंतकवादी मुसलमान हैं जैसा मुहावरा चलन में आ गया हो तब इस गलत मिथ को तोड़ने के लिए कोई संस्था अथवा व्यक्ति आगे आता है तो यह हर हाल में स्वागत योग्य है। कोर्बोडा संस्था यदि मुसलमानों के सांकृतिक विकास के लिए कोई नई शुरूआत करना चाहती है तो इसमें गलत क्या हैं? प्रसिद्ध पत्रकार एम0जे0 अकबर का तो स्पष्ट मानना है कि जब तक मुसलमान सांस्कृतिक रूप से पिछडे़ और गरीब रहेंगें तब तक दकयानूस शक्तियाँ उनका इस्तेमाल करती रहेंगी।
आज तथ्यात्मक स्थिति यह है कि अमेरिका में लगभग 70 लाख मुसलमान निवास कर रहे हैं और 1200 से ज्यादा मस्जिदें हंै। अकेले न्यूयार्क शहर में 5 लाख से अधिक मुस्लिम हैं और ग्राउण्ड जीरो ब्लाॅक से कुछ ही दूरी पर एक मस्जिद भी बनी हुई है। मुसलमानों के सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने और आंतकवाद की रोकथाम के लिए जिस स्थल पर इस्लामी केन्द्र के निर्माण का प्रस्ताव है वह जगह भी ग्राउण्ड जीरो स्थल से दो ब्लाॅक दूरी पर स्थित है।
अमेरिका आज भले ही अपने आपको विश्व का सबसे उदार और अग्रगामी सोच का देश मानने का दावा करता हो लेकिन इन दिनों उसकी सोच काफी गड़बड़ायी हुई है। इसका पुख्ता प्रमाण वह सर्वे है जो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुस्लिम मानने वालों को लेकर किया गया था। यह सच है कि ओबामा के पिता एक कीनियाई मुसलमान थे, लेकिन उनकी माँ ईसाई हैं। बराक ओबामा का लालन-पालन और पढ़ाई उनकी ईसाई नानी की देखरेख में हुई है। ओबामा भले ही कभी बराक हुसैन ओबामा रहे हो लेकिन ईसाई धर्म में दीक्षित होने के बाद वे केवल बराक ओबामा हैं। उनके आदर्श महात्मा गाँधी और मार्टीन लूथर किंग जैसे विश्व मानवतावादी हंै। ऐसे में भी ओबामा की आस्था को लेकर सवाल खड़ा करना और उन्हे मुस्लिम राष्ट्रपति करार देना किस अमेरिकी मानसिकता का द्योतक है?
‘कास्ट, क्रीड और कलर’ से उपर उठकर अमेरिकी समाज ने ओबामा को राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के लिए चुना था। वहीं अमेरिकी समाज आज ओबामा के मुस्लिम होने को लेकर सर्वे करा रहा है। न्यूर्याक में मुस्लिम सांस्कृतिक केन्द्र का विरोध करने वाले भूल जाते है कि उनकी यह हरकत अमेरिकी समाज के ग्राउण्ड जीरो सोच को ही अधिक जाहिर करती है। राष्ट्रपति पद के लिए चयन किये जाने पर अमेरिकी समाज की प्रशंसा करते हुए ओबामा ने कहा था - ‘यस वी कैन’ अब वही एडवान्स और प्रोग्रसिव अमेरिकी समाज महज एक इस्लामी केन्द्र के प्रस्ताव पर डेजी खान और उनके पति को जान से मारने की धमकियां दे रहा है।