शनिवार, 18 अप्रैल 2015

अगले जनम में आइंस्टीन

18 अप्रेल को आज ही के दिन 76 साल की उम्र में आइन्सटीन ने अंतिम साँस ली थी। अल्बर्ट आइंसटीन की स्कूली शिक्षा का आखरी साल उनके लिए आश्चर्यजनक रूप से ज्ञानवर्धक सिद्ध हुआ। स्विट्जरलैण्ड की शिक्षा पद्धति उन्हें बहुत भाई- क्योंकि यहाँ आकर उन्हें जर्मनी के सत्तावादी औपचारिक कठोर अनुशासन से मुक्ति मिली। एक ऐसा माहोल मिला जिसमें प्रतिरोध का डर नहीं था और शिक्षकों का छात्रों के प्रति नज़रिया भी वैसा नहीं था-जैसा सेना की एक टुकड़ी के प्रति होता है। यहाँ विद्यार्थियों के लिए स्वतंत्र ढंग से सोचने-समझने और क्रियाकलापों को करने का मैत्रीपूर्ण वातावरण उपलब्ध था। शिक्षा के महत्व पर बाद में बोलते हुए आइंसटीन ने कहा था- ‘शिक्षा केवल बहुत सारे तथ्यों की जानकारी हासिल करना नहीं है। शिक्षा का असली उद्देश्य है मस्तिष्क को इस तरह प्रशिक्षित करना कि हम चीजों के बारे में सोच-विचार कर वह ज्ञान हासिल कर सकें जो पुस्तकों से नहीं मिल सकता।’

अपने भुलक्कड़पन के लिए मशहूर आइंसटीन बहुत हाजिर जवाब भी थे। सोर्बोन में एक बार सवाल-जवाब में उन्होंने कहा था ‘देखिए सापेक्षता के सिद्धान्त की यदि पुष्टि हो जाती है तो जर्मनी मुझे आदर्श जर्मन कहेगा और फ्रान्स मुझे विश्व-नागरिक का सम्मान देगा। लेकिन यदि मेरा सिद्धान्त गलत साबित होता है तो फ्रान्स मुझे जर्मन कहेगा और जर्मनी मुझे यहूदी कहेगा।’ जर्मनी की नाजी गतिविधियों के चलते जब उन्हें अमेरिका में शरण लेनी पड़ी तो अनेक बड़े विश्वविद्यालयों के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने शांत बौद्धिक माहोल वाले अलबत्ता छोटे प्रिंस्टन विश्वविद्यालय को चुना। विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारी द्वारा शोध के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची माँगने पर आइंस्टीन का जवाब था ‘जी, मुझे आप एक ब्लेक बोर्ड, कुछ चॉक, कागज तथा पेंसिल दे दीजिए। और हाँ- एक बड़ी टोकरी भी, क्योंकि मैं काम करते वक्त गलतियाँ बहुत करता हूँ। जाहिर है कि छोटी टोकरी जल्दी भर जाएगी।’

हर वैज्ञानिक की तरह आइंसटीन भी ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। दार्शनिक एरिक गुटकिग को एक पत्र में उन्होंने लिखा था भगवान मेरे लिए मानवीय कमजोरी से ज्यादा और कुछ नहीं है। लेकिन भारत आगमन के बाद आध्यात्म को लेकर उनके विचारों में जबरदस्त परिवर्तन हुआ। भारत के कुछ प्रसिद्ध सन्तों से मिलने के बाद तो वे यह भी कहने लगे थे कि आगामी सदियों में विज्ञान और आध्यात्म का एक-दूसरे में विलय हो जाएगा। यहाँ तक कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्थापन को लेकर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी में कहा ‘ब्रह्माण्ड को लेकर ईश्वर पाँसों से नहीं खेलता। कहा जाता है कि जीवन के अंतिम वर्षों में जब उनसे यह पूछा गया कि अगले जन्म में वे क्या होना पसंद करेंगे तो आइंस्टीन का जवाब था कि यदि वह है तो अगले जन्म में मैं सन्त होना चाहँूगा।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

राष्ट्रघाती वक्तव्य

मित्रो बैसाखी पर्व और बाबासाहेब भीमरावअम्बेडकर के जन्मदिन की हर्दिक शुभ कामनाएं !

राष्ट्र को सुदृढ़ और मंगल की ओर अग्रसर करने वाले इन दोनों ही आयोजनों के अवसर पर मैं उस राष्ट्रघाती वक्तव्य पर बात करना चाहूँगा जो सोशल मिडिया पर इन दिनों छाया हुआ है।जी हाँ मेरा आशय शिव सेना के राज्यसभा सदस्य और मराठी पत्रिका 'सामना'के कार्यकारी सम्पादक संजय राउत के उस बयान से है जिसमें उन्होंने मुस्लिम समुदाय को मताधिकार से वंचित करने की बात कही है। निश्चय ही यह गैर जिम्मेदारना और संविधान विरोधी वक्तव्य है और इसकी जितनी निंदा की जाए कम है।कांग्रेस नेता अभिषेक मनुसिंघवी ने इसे लेकर ट्वीट किया है कि भगवान शिव और हमारी सेना दोनों लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के प्रतीक हैं,फिर शिव सेना क्यों अपने नाम को झुठलाने पर आमादा है। आप नेता आशुतोष ने मांग की है कि संजय राउत को गिरफ्तार किया जाना चाहिए और' सामना' के खिलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करते हुए शिवसेना की मान्यता ख़त्म की जानी चाहिए क्योंकि उनका यह कृत्य संविधान विरोधी है।
उधर मजलिस-ए-इत्तेहादुल के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवेसी ने केंद्र सरकार और निशाना साधा है कि दुनिया की कोई ताकत किसी भी हिन्दुस्तानी के इस संविधान प्रदत्त अधिकार को छीन नहीं सकती। किसी माई के लाल में दम है तो छीन कर दिखाए।जमीयत उलेमा-ए-हिन्द(यूपी)के प्रदेश अध्यक्ष मौलाना अशहर रशीदी ने कहा है कि शिवसेना औरफ़िरकाकापरस्त ताकतें सविधान को आग लगाकर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रही हैं। सरकार ने हमेशा की तरह पल्ला झाड़ते हुए कहा है कि ऐसे विचार संविधान के खिलाफ है-लेकिन दोषियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही उसके स्तर पर हो इसे लेकर वह मौन है।
इधर फेसबुक पर वरिष्ठ हिंदी आलोचक और अब एक्टिविस्ट आदरणीय मोहन श्रोत्रिय ने अपनी वाल पर इसके विरुद्ध अभियान छेड़ते हुए लिखा कि-'न्यायालय इन हरकतों का संज्ञान लेना कब शुरू करेगा? संविधान की अवमानना और देश को खंडित करने का मामला क्यों नहीं बनता इनके खिलाफ़ ?'
कई कड़ी प्रतिक्रियाएं आईं। लेकिन डा.मनजीत की की प्रतिक्रिया खासी दिलचस्प है-मैं उसे हू -ब-हू प्रस्तुत कर रहा हूँ :

डॉ. विक्रम जीतः आश्चर्य ! संजय राउत का यह बयान भी मीडिया की धूर्तता का शिकार हो गया लगता है। एक मित्र की टिप्पणी है -
"अगर आप मराठी भाषी है और आप ने संजय राऊत का वह भाषण सुना है जहां उसने
मुसलमानों का मताधिकार स्थगित करने की बात की है - तो आप उनके कहने से
असहमत नहीं हो सकते। अगर असहमत हो रहे हैं तो आप का कोई स्वार्थ या
मजबूरी है । खैर, एक मराठी भाषी होने से मैं उनका भाषण पूरा समझ सकता हूँ
और उसका सही अनुवाद यहाँ दे रहा हूँ । मैं ये गैरंटी के साथ कह रहा हूँ
कि मीडिया ने जान बूझ कर झूठी रिपोर्टिंग की हुई है (कौनसी नयी बात है) ।
खुद ही पढ़ लीजिये ।
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ओवैसी 'भाई' मुसलमानों में और इस निमित्त से सम्पूर्ण देश में - जहर
फैलाने की कोशिश कर रहे हैं और इस से देश को खतरा है । मुसलमानों को इस
देश की मुख्य धारा से जुडने देना है या नहीं - हम प्रयत्न कर रहे हैं कि
उन्हें (मुसलमान) मुख्य धारा से जुड़ना चाहिए । लेकिन मुसलमानों के नए नए
नेता अपनी वोट बैंक की ठेकेदारी निर्माण करके बार बार मुसलमानों को मुख्य
धारा से जुडने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं । अब ये नयी कोशिश ओवैसी
बंधुओं से हो रही है ।

जिस तरह के उनके भाषण हमने मुंबई में हुई सभा में देखें उससे मुझे ये
एहसास होता है कि यह एक अत्यंत गंभीर बात है - इनके भाषण - हैदराबाद में
हो या देश में और राज्यों में कहीं दिये हों - हमने आज (सामना में) छाप
दिया है .... ये हिन्दू और मुस्लिम समाजों में सोच समझ कर नफरत और
दुश्मनी पैदा करनेवाले भाषण हैं । अगर मुसलमानों को सही अर्थ में खतरा
है, तो ऐसे नेताओं से है ।
और तब भी (भूतकाल में) बालासाहेब ने यह stand इसीलिए लिया था कि मुसलमान
समाज गरीब ही रहा है, पिछड़ा ही रहा है, अंधश्रद्धा के जुआँ के नीचे दबा
रहा है और उन्हें जान बूझ कर धर्मांध बनाया जा रहा है । इसका कारण भी यह
है कि जब तक वे धर्मांध नहीं बनेंगे और किसी एक भय के कारण मुख्य धारा से
नहीं टूटेंगे, तब तक इन मुसलमान सियासतदानों के दुकान नहीं चलेंगे । कभी
जमा मस्जिद के इमाम, उसके पहले जिन्ना, कभी मुलायम सिंह यादव, कभी
मुख्तार अंसारी और कभी यहाँ पर अबू आजमी - कब तक चलेगा ये?
अगर मुसलमान ये वोट बैंक की राजनीति रोकना चाहते हैं, अगर मुसलमान सही
अर्थ में अपना विकास चाहते हैं - केवल राजनैतिक नहीं .... बलासाहेब ने
कहा था कि कुछ समय के लिए मुसलमान समाज का मताधिकार (Voting Rights)
स्थगित कर दो - पता चल जाएगा कि ये जो मुसलमान नेता हैं, उनके सुख दुख
में कितने समय तक उनके साथ रहते है...

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

भाजपा के लिए बड़े काम की चीज हो सकते थे बाबोसा

राजस्थान की राजनीति में बाबोसा के सम्बोधन से नवाजे गये भैंरोसिंह शेखावत जिन्दा होते तो आज हम उनकी 90 वीं वर्षगाँठ मना रहे होते। एक सामान्य किसान परिवार से आये शेखावत ने अपने बूते राष्ट्रीय राजनीति में अहम मुकाम हासिल किया। उनके कुशल नेतृत्व में राजस्थान पिछड़े और बीमारू राज्यो की श्रेणी से बाहर आकर देश का अग्रिण राज्य बना। उन्होने जिस अभिनव अन्त्योदय योजना की शुरूआत की वह ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का आधार बनी। इस तरह शेखावत हर लिहाज से बेजोड़ राजनेता थे। लेकिन अद्भुत राजनीतिक सूझबूझ और बेदाग छवि के बावजूद जीवन की सांध्यबेला में पार्टी को धता बताते हुए उन्होने जिस तरह लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया, उसे लेकर आज भी अनेक राजनीतिक चिंतक नाक-भौं सिकोड़ते है। अब जबकि वह वाकया इतिहास में दर्ज हो चुका है और बाबोसा भी दुनिया में नहीं रहे तो उस प्रसंग का वस्तुनिष्ठ ढंग से आंकलन उचित होगा।
तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे और उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद पर रहने के पश्चात् 86 साल की उम्र में फिर से सक्रिय राजनीति में लौटने की शेखावत की तलब को लोगो ने राजनीतिक लिप्सा कहा। लेकिन जो लोग शेखावत को निकट से जानते थे उनके लिए वह अप्रत्याशित नहीं था, बल्कि शेखावत जैसे जमीन से जुड़े नेता का सक्रिय राजनीति से दूर चला जाना जरूर अपने आप में अन्तर्विरोध-पूर्ण था। शेखावत की इस तलब को सही संदर्भ में समझने के लिए एक घटना का उल्लेख जरूरी है। शेखावत तब तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। एक जैन आश्रम के आयेाजन में वे बतौर मुख्य अतिथि शिरकत कर रहे थे। समारोह में जैनाचार्य ने अपने उद्बोधन में कहा कि शेखावत तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लिहाजा उम्र के इस मोड़ पर उन्हें अपने आध्यात्मिक उत्थान के बारे में सोचना चाहिए। उम्मीद के विपरीत शेखावत का सम्बोधन चैंकाने वाला था। उन्होंने कहा कि यदि मुझे पता होता कि मेरे यहाँ आने का यह आशय निकाला जाएगा तो मैं हरगिज नहीं आता। मैं राजनीतिक प्राणी हूँ मेरा जीना मरना सब राजनीति में ही होगा। लेकिन उन्हें अनिच्छापूर्वक उपराष्ट्रपति जैसे गैर राजनैतिक पद पर धकेल दिया गया। शेखावत ने बिना किसी ना-नुकर के उस दायित्व को निभाया और बखूबी निभाया, यहाँ तक कि पार्टी के निर्देश पर घोषित हार वाला राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा, क्योंकि वे रणछोड़ नहीं बनना चाहते थे।
फिर भी लाख सवालों का सवाल यह था कि शेखावत लोकसभा का चुनाव क्यों लड़ना चाहते थे? क्या वे महज संसद में पहुँचने के लिए ऐसा कर रहे थे या उनका तिर्यक लक्ष्य कुछ और था? वैसे उन्होंने अपने मन्सूबे छिपाये भी नहीं थे। तमाम विकल्प खुले रखने की बात कहने के साथ-साथ उन्हें प्रधानमंत्री बनने में भी कोई गुरेज नहीं था। लेकिन क्या वे एक अकेले चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री बन सकते थे? अध्यक्षीय चुनाव होता तो बात कुछ और थी। संसदीय प्रजातंत्र में दलीय समर्थन के बिना कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था और समर्थन के नाम पर उनके पास केवल कुछ राजनीतिक दलों के मुखियाओं की शुभाशंषाएं थी। भाजपा शेखावत से पहले ही पल्ला झाड़ चुकी थी। ऐसे में दूसरे दल भी उन्हें अपना सिरमौर क्यों बनाने लगें? इस तरह उनकी दावेदारी राष्ट्रपति चुनाव की तरह प्रथम दृष्ट्या ही कमजोर दिख रही थी।
लेकिन सवाल यह भी था कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व (जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी दोनों शामिल थें) ने जिस तरह उन्हें राजनैतिक हाशिए पर धकेलने का गुनाह किया, उसे देखते हुए शेखावत भाजपा और आडवाणी की चिन्ता क्यों करते? तो क्या वे अपनी खुन्नस निकालने के लिए चुनाव लड़ना चाहते थे? शेखावत के राजनीतिक जीवन और उनकी कार्यशैली को देखते हुए कहा जा सकता था कि वे ऐसा करने वालों में नहीं थे। दरअसल पिछले दो दशकों से लोकसभा चुनाव का परिदृश्य बिखरा-बिखरा ही रहा था। आगामी लोकसभा चुनाव का परिदृश्य इससे भिन्न होगा, ऐसी उम्मीद नहीं थी। कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कथित तीसरा मोर्चा कोई भी अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिख रहा था। वह गठबंधन की सरकारों का दौर था। जिसमें दिग्गज धूल चाटते और अल्पज्ञात कुलशील राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री बन रहे थे। ऐसे में शेखावत लोकसभा का आगामी चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों के बीच अपनी दावेदारी भी रखना चाहते थे। चुनाव लड़ने की उनकी जिद का यही सार-संक्षेप था।
दलीय नेतृत्व को ठेंगा दिखाकर शेखावत के चुनाव लड़ने को लोग अनैतिक कह रहे थे। लेकिन ये वे ही लोग थे जो यह मान कर चल रहे थे कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को ही बहुमत मिलेगा और लालकृष्ण आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनेगे। उस समय देश में जिस तरह की दलीय स्थितियाँ थी उन्हें देखते हुए कोई राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता था कि उसे ही बहुमत प्राप्त होगा और अमुक प्रधानमंत्री बनेगा। सब कुछ चुनाव परिणामों पर निर्भर था, अलबत्ता यह तय था कि सरकार गठबंधन की ही बनेगी। दो दशकों के चुनाव परिणाम साक्षी थे कि पी. एम. इन वेटिंग धरे रह गये थे और ऐरे-गैरे प्रधानमंत्री का पद पा गये थे।
यहीं आकर शेखावत की दावेदारी का महत्व बढ़ जाता था। वे देश के वरिष्ठतम राजनेता थे। देश के सबसे बड़े प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ-साथ उन्हें उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद का भी अनुभव हासिल था। गठबंधन की राजनीति में वे माहिर थे। लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बावजूद वे पूरी तरह बेदाग, निष्पक्ष और निर्विवाद थे। उनकी मैत्रीपूर्ण राजनैतिक शैली का ही नतीजा था कि भाजपा से अधिक उनके चाहने वाले अन्य राजनैतिक दलों में मौजूद थे। उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस के सांसदों तक ने उनके समर्थन में मतदान किया था। भाजपा में वे एक अकेले ऐसे नेता थे जिन पर अल्पसंख्यक आँख मूँद कर भरोसा कर सकते थे। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान समाजवादी नेता मधुलिमये ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से कहा था कि बाबरी मस्जिद की सुलह की कोशिशों में भैरोंसिंह शेखावत को डालना चाहिए, क्योंकि उनकी राजनीतिक समझ किसी भी भाजपाई नेता से बेहतर है।
पिछले लोकसभा चुनावों में शेखावत प्रधानमंत्री पद के बेहतर दावेदार हो सकते थें। भाजपा यदि अपने ऐलान से आगे बढ़कर सोचती तो वे उसके लिए भी बड़े काम की चीज हो सकते थे। राजनीतिक सूझ, सरकार चलाने का अनुभव, कुशल नेतृत्व, सफल सत्ता संचालन, बेदाग छवि, अन्य दलों में स्वीकार्यता आदि गुणों के कारण हर हाल में वे आडवाणी से इक्कीस थे। उधर इतिहास में एक ऐसा चुनाव भी दर्ज था, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की मौजूदगी के बावजूद नान सेकुलर छवि के चलते उनकी सरकार एक सांसद का समर्थन जुटाने में असमर्थ रही थी। आडवाणी के नेतृत्व में ऐसा संकट और बढ़ जाता था। संकट के ऐसे किसी भी समय में शेखावत भाजपा के लिए अमोध वरदान सिद्ध हो सकते थे।
भैंरोसिंह शेखावत के चुनाव लड़ने के निर्णय पर प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी की ने जनसत्ता में लिखा थाः कोई कद्दावर नेता चुनाव के मैदान में हो तो प्रधानमंत्री का पद अपने आप खाली हो जाता है, क्योंकि इससे पार्टियों की तय लाइन और उम्मीदवारों के दावे बेकार हो जाते है। कौन जानता है कि जनता क्या चाहती है और किसे मौका दे देगी? चुनाव का चरित्र ही इस तरह की अनिश्चतताएं पैदा करता है पार्टियों और गठबंधनों ने पहले से भले ही कुछ भी तय कर रखा हो। भाजपा और राजग के बाहर खड़े भैंरोसिंह शेखावत यूपीये में शामिल कुछ पार्टियों के लिए भी कम वांछनीय नहीं होंगे। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पंवार और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह से भैंरोसिंह शेखावत की नजदीकी सिर्फ निजी नहीं है, राजनीतिक भी है। अगर पार्टियों और गठबंधनों के मौजूदा स्वरूप बदलते है तो कल आप देखेंगे कि कौन किसके साथ है। अगर भैंरोसिंह शेखावत का चुनाव के मैदान में उतरना ऐसी राजनीतिक खलबली मचाता है तो सिर्फ चुनाव बड़े दिलचस्प हो जाएंगे उनमें से एक नई राजनीति भी निकल कर सकती है जो चले रहे ढाँचों और समीकरणों और नारों को बदल दे सकती है। ऐसा नहीं है कि यह सब वे कर सकते है या करेंगें। लेकिन उनका उतरना ऐसे परिवर्तन का निमित्त हो सकता है।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

तुम जब हँसती हो

तुम जब हँसती हो तो आ जाती है
धूप में अनोखी चमक
जल में विरल तरलता
हवा में अद्भुत उल्लास
गुलाबों में सिहरन
पेड़ों में हरा उजास

तुम जब हँसती हो तो बढ़ जाती है
नक्षत्रों की कांति
नदियों में विपुल जल
खबरों में अवकाश
बादलों में बारिश
घरों में सुख-चैन


तुम जब हँसती हो तो गाती है
देह में सर्पिलता
लहू में रक्तिम आभा
मन में अनन्त इच्छाएँ
आत्मा में अमरता
अस्थि-मज्जा में जिजीविषा


तुम जब हँसती हो तो भर जाता है
स्त्रियों में लबालब प्यार
पुरूषों में विनम्र अनुरोध
पिता में पुरुषार्थ
माँ में मनुहार
संतति में परिष्कार

तुम जब हँसती हो तो उठती है
मिट्टी से सौंधी गमक
बस्तियों से भोज की गंध
दिनों में मशक्कत और अट्टहास
रातों में स्वप्न और आमंत्रण
धमनियों में उद्दाम वेग

तुम जब हँसती हो तो जागती है
घोड़ों में हिनहिनाहट
दोस्तों में दोस्ती
दुश्मनों में दुश्मनी
पण्डितों में चतुराई
ईश्वर में करूणा

तुम जब हँसती हो तो ढँक जाती है
नग्नता आवरण से
आवरण निर्वस्त्रता से
होठ चुम्बनों से
आकाश ग्रह नक्षत्रों से
धरती धन-धान्य से

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

अमेरिका की ग्राउण्ड जीरो सोच

पिछले रविवार को न्यूयार्क में उस समय अचानक तनाव की स्थिति पैदा हो गई जब ग्राउण्ड जीरो स्थल के समीप एक मस्जिद के निर्माण को लेकर समर्थन और विरोध में बेहद करीब से दो रैलियां गुजरीं। ग्राउण्ड जीरो वह जगह है जहाँ वल्र्ड-ट्रेड-सेन्टर स्थित था। 11 सितम्बर 2001 को वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला कर आंतकवादियों ने उसे ध्वस्त कर दिया था। इस हमले में 2700 से अधिक लोग मारे गये थे। उसी वल्र्ड-ट्रेड-सेन्टर के ग्राउण्ड जीरो स्थल के समीप कोर्बाडा इनिशिएटिव नामक संस्था एक ऐसा इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र बनाना चाहती है जो आंतकी विचारधारा को बदलने के साथ-साथ समुदायों के बीच सौहार्द और सांस्कृतिक बहुलता को भी बढ़ावा दे। इस संस्था का नाम भी दसवीं सदी के उस स्पेनिश शहर के आधार पर रखा गया है जहाँ कभी ईसाई, यहूदी और मुस्लिम समुदाय के लोग मिल-जुल कर रहते थे। 10 करोड़ अमेरिकी डालर वाली इस परियोजना के प्रमुख कुवैती मूल के इमाम फैसल अब्दुल राउफ का कहना है कि प्रस्तावित इस्लामी केन्द्र पूरे न्यूयार्क वासियों के लिए होगा।
लेकिन इस इस्लामी केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव आते ही समूचे न्यूयार्क में तीव्र विरोध शुरू हो गया। इस बारे में जनमत जानने के लिएसिएना रिसर्च सेन्टर इन्स्टीट्यूटद्वारा पिछले हते करवाये गये एक सर्वे में पाया गया कि न्यूयार्क में रहने वाले 68 फीसद लोग इस्लामी केन्द्र कें निर्माण के विरूद्ध हैं। विरोध करने वालों में रिपब्लिक पार्टी की प्रमुख सारा पैलिन, रूडी गुइलियानी और न्यूट गिंगरिच जैसी राजनैतिक हस्तियाँ शामिल हैं। उधर डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और सीनेट में सदन के मुखिया हैरी रीड खुलकर अपना विरोध जता चुके है। इन सबका मानना है कि वल्र्ड ट्रेड सेन्टर के स्थान पर किसी भी इस्लामी केन्द्र के निर्माण की पेशकश केवल अमेरिका के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसी होगी बल्कि यह ज़िहाद और इस्लामी विस्तारवाद की ही जीत होगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा शुरूआत में इस प्रस्ताव के समर्थक थे लेकिन विरोधी दल की नेता सारा पालिन ने जब इस समर्थन के लिए उन्हे ललकारा तो ओबामा पीछे हट गये। अलबत्ता अमेरिकी समाज के दबाव के बावजूद उन्होने यह कहने का साहस जरूर दिखाया कि मुस्लिमों को भी सभी मनुष्यों की तरह अपने धर्म पालन का अधिकार है।
11 सितम्बर की दुखद स्मृति को भुलाना अमेरिका के लिए आसान नहीं है। लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में ईराक और अफगानिस्तान को जिस तरह तबाह किया गया वह भी कम भयानक नहीं था। इस घटना के बाद मुस्लिम नागरिको के साथ अमेरिका और अन्य कई यूरोपीय देशों में जिस तरह का बर्बर सलूक किया गया वह भी दरिन्दगी की मिसाल है। इस घटना के बाद इस्लाम तो जैसे आंतक का पर्याय ही हो गया। ऐसे में 9 साल गुजर जाने के बाद भी अमेरिका का उस इतिहास ग्रंथि से पीड़ित रहना एक अपशकुन की तरह है। क्योंकि जिन्दा कौमें अतीत से चिपकी नहीं रहतीं। वे तमाम पिछली भूल-गलतियों को बिसरा का आगे बढ़ती हैं और भूल सुधार से भी गुरेज नहीं करती।
न्यूयार्क में इस्लामी केन्द्र की पेशकश और उसके निर्माण के विरोध को लेकर चल रहे घटनाक्रम का सबसे दुखद और निन्दनीय पहलू है उसे एक मस्जिद के निर्माण की तरह प्रचारित करना। यह सच है कि इस इस्लामिक सांस्कृतिक केन्द्र में एक इबादतगाह भी होगी। लेकिन इसे एक मस्जिद का नाम देना अमेरिकी समाज के धार्मिक कठमुल्लेपन को जाहिर करता है। इसिलिए परियोजना की सह-निर्माता डेजी खान ने लोगों की प्रतिक्रिया को यहूदी विरोधी करार दिया है। एबीसी के कार्यक्रमदी वीकमें उन्होने साफ कहा कि यह इस्लाम के प्रति फोबियो नहीं है, बल्कि इस्लामोंफोबिया है- मुस्लिमों के प्रति खुल्लम-खुल्ला नफरत का इजहार। वाशिंगटनपोस्ट को दिये अपने इन्टरन्यू में उन्होने कहा कि दरअसल इस्लामी केन्द्र के विरोध के लिए रिपब्लिक पार्टी के नेता जिम्मेदार हैं। वे अपने निहीत राजनैतिक स्वार्थ के लिए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं- जिसके बहुत दूरगामी, अनिष्टकारी, साम्प्रदायिक परिणाम हो सकते हैं।
इतिहास गवाह है कि अपने साम्राज्यवादी इरादे और व्यावसायिक हितों के लिए अमेरिका पेट्रो-देशो में कट्टरवादी ताकतों को तरजीह और पनाह देता रहा है। 11 सितम्बर 2001 को उन्ही शक्तियों ने पलटकर अमेरिका पर वार कर दिया है तो अमेरिका किस नैतिक हक से उनका विरोध कर सकता है। ओसामा बिन लादेन हो या सद्दाम हुसैन उन्हे हीरो बनाने का काम अमेरिका ने ही किया था। मुस्लिम देशों से आगे बढ़कर आज आंतकवाद समूचे विश्व को चुनौती दे रहा है तो उसके लिए परोक्ष रूप से अमेरिका ही जिम्मेदार है। अफगान सीमा पर सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन आज पलटकर अलकायदा के सरगना हो गये है।
सवाल यह भी है कि कथित इस्लामी आंतकवाद को कोसने के बजाए क्या सकारात्मक शक्तियों को बढ़ावा देना उचित नहीं होगा? एक ऐसे समय में जब तमाम आंतकवादी मुसलमान हैं जैसा मुहावरा चलन में गया हो तब इस गलत मिथ को तोड़ने के लिए कोई संस्था अथवा व्यक्ति आगे आता है तो यह हर हाल में स्वागत योग्य है। कोर्बोडा संस्था यदि मुसलमानों के सांकृतिक विकास के लिए कोई नई शुरूआत करना चाहती है तो इसमें गलत क्या हैं? प्रसिद्ध पत्रकार एम0जे0 अकबर का तो स्पष्ट मानना है कि जब तक मुसलमान सांस्कृतिक रूप से पिछडे़ और गरीब रहेंगें तब तक दकयानूस शक्तियाँ उनका इस्तेमाल करती रहेंगी।
आज तथ्यात्मक स्थिति यह है कि अमेरिका में लगभग 70 लाख मुसलमान निवास कर रहे हैं और 1200 से ज्यादा मस्जिदें हंै। अकेले न्यूयार्क शहर में 5 लाख से अधिक मुस्लिम हैं और ग्राउण्ड जीरो ब्लाॅक से कुछ ही दूरी पर एक मस्जिद भी बनी हुई है। मुसलमानों के सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने और आंतकवाद की रोकथाम के लिए जिस स्थल पर इस्लामी केन्द्र के निर्माण का प्रस्ताव है वह जगह भी ग्राउण्ड जीरो स्थल से दो ब्लाॅक दूरी पर स्थित है।
अमेरिका आज भले ही अपने आपको विश्व का सबसे उदार और अग्रगामी सोच का देश मानने का दावा करता हो लेकिन इन दिनों उसकी सोच काफी गड़बड़ायी हुई है। इसका पुख्ता प्रमाण वह सर्वे है जो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुस्लिम मानने वालों को लेकर किया गया था। यह सच है कि ओबामा के पिता एक कीनियाई मुसलमान थे, लेकिन उनकी माँ ईसाई हैं। बराक ओबामा का लालन-पालन और पढ़ाई उनकी ईसाई नानी की देखरेख में हुई है। ओबामा भले ही कभी बराक हुसैन ओबामा रहे हो लेकिन ईसाई धर्म में दीक्षित होने के बाद वे केवल बराक ओबामा हैं। उनके आदर्श महात्मा गाँधी और मार्टीन लूथर किंग जैसे विश्व मानवतावादी हंै। ऐसे में भी ओबामा की आस्था को लेकर सवाल खड़ा करना और उन्हे मुस्लिम राष्ट्रपति करार देना किस अमेरिकी मानसिकता का द्योतक है?
कास्ट, क्रीड और कलरसे उपर उठकर अमेरिकी समाज ने ओबामा को राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के लिए चुना था। वहीं अमेरिकी समाज आज ओबामा के मुस्लिम होने को लेकर सर्वे करा रहा है। न्यूर्याक में मुस्लिम सांस्कृतिक केन्द्र का विरोध करने वाले भूल जाते है कि उनकी यह हरकत अमेरिकी समाज के ग्राउण्ड जीरो सोच को ही अधिक जाहिर करती है। राष्ट्रपति पद के लिए चयन किये जाने पर अमेरिकी समाज की प्रशंसा करते हुए ओबामा ने कहा था - ‘यस वी कैनअब वही एडवान्स और प्रोग्रसिव अमेरिकी समाज महज एक इस्लामी केन्द्र के प्रस्ताव पर डेजी खान और उनके पति को जान से मारने की धमकियां दे रहा है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

कारोबारी स्वार्थ के लिए

अमेरिकी संस्थान ’पीपल एण्ड दी प्रेस’ द्वारा पिछले दिनों कराये गये एक सर्वे के अनुसार 63 प्रतिशत अमेरिकी लोगों का मानना है कि अधिकांश खबरें सच नहीं होती। इससे पहले वर्ष 1985 में कराये गये सर्वे में ऐसा मानने वाले 34 प्रतिशत थे। संस्थान के निदेशक एंड्रयू कोहुट का कहना है कि मीडिया के प्रति लोगों की ऐसी धारणा दिनों-दिन मजबूत हो रही है। अमेरिका में इन दिनों अधिकतर लोग यह मानने लगे हैं कि समाचारों के मामले में पत्रकार न केवल पक्षपात करते हैं, बल्कि उन्हें अपना काम भी ठीक ढंग से नही आता। सर्वे के परिणामों का निष्कर्ष है कि अखबार और चैनल मीडिया पाठकों/दर्शकों का ध्यान अपनी ओर बलात् खींचने के लिए झूठ और सनसनी का सहारा लेते हैं और खेद की बात हैं कि ऐसा मानने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।

अखबार हों या चैनल मीडिया, जाहिर-सी बात है कि ये खबरों का कारोबार करते हैं। हर कारोबार की तरह खबरों के कारोबार की भी कुछ शर्तें होती हैं, जिनको दरकिनार कर खबरों कारोबार नहीं चलाया जा सकता। हर कारोबार के कुछ व्यावसायिक गुर होते हैं, जिन्हें धन्धे के लिए अमल में लाना लाजमी होता है। क्योंकि कारोबार को धार्मिक संस्थान की तरह नहीं चलाया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि हर कारोबार की बुनियादी शर्त है उसकी विश्वसनीयता। उसमें कमी आते ही वह न केवल साख गंवा बैठता है, बल्कि औंधें मुंह भी धड़ाम से आ गिरता है। फिर पत्रकारिता और प्रसारण कर्म तो धन्धे के साथ-साथ मिशन भी हैं। बल्कि मिशन पहले और धन्धा बाद में। छपे शब्द के प्रति लोगों की आस्था का लम्बा इतिहास रहा है। न जाने कितने लोगों ने जान पर खेल कर इस आस्था को कायम किया है। लेकिन पीपल एण्ड दी प्रेस का सर्वे हमें आगाह करता है कि यह आस्था इन दिनों बड़ी तेजी से दरक रही है।

पिछले समय में भी पत्रकारिता का दुरूपयोग होता रहा हैं। इसीलिए ’पीत पत्रकारिता’ जैसा शब्द चलन में आया। लेकिन इन दिनों अखबार और चैनल मीडिया अपने कारोबारी स्वार्थ के लिए जिस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं वह बेहद चिंताजनक है। इसमें चैनल मीडिया तो जैसे हदें लांघ रहा है। खबरों का सनसनीखेज इस्तेमाल करने के साथ-साथ वह इतिहास, धर्म, दर्शन, आध्यात्म किसी का भी दुरूपयोग करने से नही हिचकता। फिर भूत-प्रेत, जादू-टोना, अंधविश्वास यहां तक कि लोगों के निजी जीवन मे ताक-झांक तो एक सामान्य बात हो गयी है।

सच यह भी है कि मीडिया आज की सर्वाधिक नियामक शक्ति हो गया हैं। हर दौर में कोई चीज केन्द्रीय नियामक शक्ति की भूमिका निभाती रही हैं। बाकी तमाम चीजें तो उसीसे नियंत्रित होती रही। प्राचीन समाजों में धर्म ऐसी ही केन्द्रीय नियामक शक्ति था। मध्यकाल से लेकर पिछली सदी तक राजनीति ऐसी ही केन्द्रीय शक्ति रही। लेकिन आज की केन्द्रीय नियामक शक्ति निष्चय ही मीडिया है। लोगों तक पहुंचने कि व्यापक सामर्थ ने उसे अधिक ताकतवर बनाया है। आज वह लगभग परम बली हो गया है और निरंकुश भी। आज जो तमाम मुददे् फजां में तारी है उनके पीछे मीडिया हैं। मीडिया चाहे जिस चीज को मान्यता दिला दे, चाहे जिसे खारिज कर दे।

मीडिया चीजों को कैसे ईश्यू बनाता हैं कैसे रस ले लेकर उनका कारोबार करता है और मतलब सध जाने पर कैसे उनसे पल्ला झाड़ लेता है। इसकी बेहतरीन मिसाल ’जसवन्त सिंह जिन्ना प्रकरण’ था। जसवन्त सिंह ने कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अपनी पुस्तक ’जिन्ना इतिहास के आईने मे’ यह सिद्ध करने की कोषिष की थी कि देश के विभाजन के लिए जिन्ना से अधिक नेहरू और सरदार पटेल उत्तरदायी थे। यह अपने आप में कोई नयी बात नहीं थी। इससे पहले भी भारत और पाकिस्तान के अनेक लेखक इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थें। लेकिन मीडिया ने इस मुददे् को ऐसे उछाला जैसे वह जसवन्त सिंह की कोई मौलिक खोज हो। पार्टी के स्टेण्ड से इतर इस स्थापना को लेकर पहले तो मीडिया ने जसवन्त सिंह को कठघरे में खड़ा किया। बाद में तमाम चैनल और अखबार हाथ धोकर जसवन्त सिंह के पीछे पड़ गये। इस हाय-तौबा से घबरा कर जैसे ही भाजपा ने जसवन्त सिंह को पार्टी से निष्कासित किया तो मीडिया पलटकर वैचारिक स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए जसवन्त सिंह का तरफदार हो गया। बीजेपी और जसवन्त सिंह की मिट्टी पलीद करने वाले इस कारोबारी दोहन के बाद मिडिया ने इस मुद्दे से तौबा कर ली।

शनिवार, 27 मार्च 2010

सीढ़ियाँ

सीढ़ियाँ नापना चाहती हैं चोटी के रहस्य
तहखानों की गहराई
वैसे उनका ताल्लुक शिखर से अधिक है
रपट कर भी जा सकता है आदमी पाताल में

वे जुड़ी रहना चाहती हैं उस बच्चे से
जिसे फिक्र है बढ़ने-बडरने की
उनकी स्मृतियों में संचित हैं
चढ़ने-उतरने के तमाम नक्शे

सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हमेशा लगता है
कि हमें कहीं पहुँचना है
कैसा लगता है सीढ़ियाँ उतरते हुए
झाँक कर देखें गहरी घाटी में

चढ़ने उतरने के सिलसिले के बीच
सीढ़ियाँ ठहरी हैं शताब्दियों से
उनकी ख्वाहिश है वे उड़ कर चली जाएं
सातवें आसमान से परे