18 अप्रेल को आज ही के दिन 76 साल की उम्र में आइन्सटीन ने अंतिम साँस ली थी। अल्बर्ट आइंसटीन की स्कूली शिक्षा का आखरी साल उनके लिए आश्चर्यजनक रूप से ज्ञानवर्धक सिद्ध हुआ। स्विट्जरलैण्ड की शिक्षा पद्धति उन्हें बहुत भाई- क्योंकि यहाँ आकर उन्हें जर्मनी के सत्तावादी औपचारिक कठोर अनुशासन से मुक्ति मिली। एक ऐसा माहोल मिला जिसमें प्रतिरोध का डर नहीं था और शिक्षकों का छात्रों के प्रति नज़रिया भी वैसा नहीं था-जैसा सेना की एक टुकड़ी के प्रति होता है। यहाँ विद्यार्थियों के लिए स्वतंत्र ढंग से सोचने-समझने और क्रियाकलापों को करने का मैत्रीपूर्ण वातावरण उपलब्ध था। शिक्षा के महत्व पर बाद में बोलते हुए आइंसटीन ने कहा था- ‘शिक्षा केवल बहुत सारे तथ्यों की जानकारी हासिल करना नहीं है। शिक्षा का असली उद्देश्य है मस्तिष्क को इस तरह प्रशिक्षित करना कि हम चीजों के बारे में सोच-विचार कर वह ज्ञान हासिल कर सकें जो पुस्तकों से नहीं मिल सकता।’
अपने भुलक्कड़पन के लिए मशहूर आइंसटीन बहुत हाजिर जवाब भी थे। सोर्बोन में एक बार सवाल-जवाब में उन्होंने कहा था ‘देखिए सापेक्षता के सिद्धान्त की यदि पुष्टि हो जाती है तो जर्मनी मुझे आदर्श जर्मन कहेगा और फ्रान्स मुझे विश्व-नागरिक का सम्मान देगा। लेकिन यदि मेरा सिद्धान्त गलत साबित होता है तो फ्रान्स मुझे जर्मन कहेगा और जर्मनी मुझे यहूदी कहेगा।’ जर्मनी की नाजी गतिविधियों के चलते जब उन्हें अमेरिका में शरण लेनी पड़ी तो अनेक बड़े विश्वविद्यालयों के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने शांत बौद्धिक माहोल वाले अलबत्ता छोटे प्रिंस्टन विश्वविद्यालय को चुना। विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारी द्वारा शोध के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची माँगने पर आइंस्टीन का जवाब था ‘जी, मुझे आप एक ब्लेक बोर्ड, कुछ चॉक, कागज तथा पेंसिल दे दीजिए। और हाँ- एक बड़ी टोकरी भी, क्योंकि मैं काम करते वक्त गलतियाँ बहुत करता हूँ। जाहिर है कि छोटी टोकरी जल्दी भर जाएगी।’
हर वैज्ञानिक की तरह आइंसटीन भी ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। दार्शनिक एरिक गुटकिग को एक पत्र में उन्होंने लिखा था भगवान मेरे लिए मानवीय कमजोरी से ज्यादा और कुछ नहीं है। लेकिन भारत आगमन के बाद आध्यात्म को लेकर उनके विचारों में जबरदस्त परिवर्तन हुआ। भारत के कुछ प्रसिद्ध सन्तों से मिलने के बाद तो वे यह भी कहने लगे थे कि आगामी सदियों में विज्ञान और आध्यात्म का एक-दूसरे में विलय हो जाएगा। यहाँ तक कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्थापन को लेकर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी में कहा ‘ब्रह्माण्ड को लेकर ईश्वर पाँसों से नहीं खेलता। कहा जाता है कि जीवन के अंतिम वर्षों में जब उनसे यह पूछा गया कि अगले जन्म में वे क्या होना पसंद करेंगे तो आइंस्टीन का जवाब था कि यदि वह है तो अगले जन्म में मैं सन्त होना चाहँूगा।
अपने भुलक्कड़पन के लिए मशहूर आइंसटीन बहुत हाजिर जवाब भी थे। सोर्बोन में एक बार सवाल-जवाब में उन्होंने कहा था ‘देखिए सापेक्षता के सिद्धान्त की यदि पुष्टि हो जाती है तो जर्मनी मुझे आदर्श जर्मन कहेगा और फ्रान्स मुझे विश्व-नागरिक का सम्मान देगा। लेकिन यदि मेरा सिद्धान्त गलत साबित होता है तो फ्रान्स मुझे जर्मन कहेगा और जर्मनी मुझे यहूदी कहेगा।’ जर्मनी की नाजी गतिविधियों के चलते जब उन्हें अमेरिका में शरण लेनी पड़ी तो अनेक बड़े विश्वविद्यालयों के प्रस्ताव के बावजूद उन्होंने शांत बौद्धिक माहोल वाले अलबत्ता छोटे प्रिंस्टन विश्वविद्यालय को चुना। विश्वविद्यालय के प्रशासनिक अधिकारी द्वारा शोध के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची माँगने पर आइंस्टीन का जवाब था ‘जी, मुझे आप एक ब्लेक बोर्ड, कुछ चॉक, कागज तथा पेंसिल दे दीजिए। और हाँ- एक बड़ी टोकरी भी, क्योंकि मैं काम करते वक्त गलतियाँ बहुत करता हूँ। जाहिर है कि छोटी टोकरी जल्दी भर जाएगी।’
हर वैज्ञानिक की तरह आइंसटीन भी ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे। दार्शनिक एरिक गुटकिग को एक पत्र में उन्होंने लिखा था भगवान मेरे लिए मानवीय कमजोरी से ज्यादा और कुछ नहीं है। लेकिन भारत आगमन के बाद आध्यात्म को लेकर उनके विचारों में जबरदस्त परिवर्तन हुआ। भारत के कुछ प्रसिद्ध सन्तों से मिलने के बाद तो वे यह भी कहने लगे थे कि आगामी सदियों में विज्ञान और आध्यात्म का एक-दूसरे में विलय हो जाएगा। यहाँ तक कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्थापन को लेकर उन्होंने अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी में कहा ‘ब्रह्माण्ड को लेकर ईश्वर पाँसों से नहीं खेलता। कहा जाता है कि जीवन के अंतिम वर्षों में जब उनसे यह पूछा गया कि अगले जन्म में वे क्या होना पसंद करेंगे तो आइंस्टीन का जवाब था कि यदि वह है तो अगले जन्म में मैं सन्त होना चाहँूगा।