राजस्थान की राजनीति में बाबोसा के सम्बोधन से नवाजे गये भैंरोसिंह शेखावत जिन्दा होते तो आज हम उनकी 90 वीं वर्षगाँठ मना रहे होते। एक सामान्य किसान परिवार से आये शेखावत ने अपने बूते राष्ट्रीय राजनीति में अहम मुकाम हासिल किया। उनके कुशल नेतृत्व में राजस्थान पिछड़े और बीमारू राज्यो की श्रेणी से बाहर आकर देश का अग्रिण राज्य बना। उन्होने जिस अभिनव अन्त्योदय योजना की शुरूआत की वह ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का आधार बनी। इस तरह शेखावत हर लिहाज से बेजोड़ राजनेता थे। लेकिन अद्भुत राजनीतिक सूझबूझ और बेदाग छवि के बावजूद जीवन की सांध्यबेला में पार्टी को धता बताते हुए उन्होने जिस तरह लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया, उसे लेकर आज भी अनेक राजनीतिक चिंतक नाक-भौं सिकोड़ते है। अब जबकि वह वाकया इतिहास में दर्ज हो चुका है और बाबोसा भी दुनिया में नहीं रहे तो उस प्रसंग का वस्तुनिष्ठ ढंग से आंकलन उचित होगा।
तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे और उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद पर रहने के पश्चात् 86 साल की उम्र में फिर से सक्रिय राजनीति में लौटने की शेखावत की तलब को लोगो ने राजनीतिक लिप्सा कहा। लेकिन जो लोग शेखावत को निकट से जानते थे उनके लिए वह अप्रत्याशित नहीं था, बल्कि शेखावत जैसे जमीन से जुड़े नेता का सक्रिय राजनीति से दूर चला जाना जरूर अपने आप में अन्तर्विरोध-पूर्ण था। शेखावत की इस तलब को सही संदर्भ में समझने के लिए एक घटना का उल्लेख जरूरी है। शेखावत तब तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। एक जैन आश्रम के आयेाजन में वे बतौर मुख्य अतिथि शिरकत कर रहे थे। समारोह में जैनाचार्य ने अपने उद्बोधन में कहा कि शेखावत तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लिहाजा उम्र के इस मोड़ पर उन्हें अपने आध्यात्मिक उत्थान के बारे में सोचना चाहिए। उम्मीद के विपरीत शेखावत का सम्बोधन चैंकाने वाला था। उन्होंने कहा कि यदि मुझे पता होता कि मेरे यहाँ आने का यह आशय निकाला जाएगा तो मैं हरगिज नहीं आता। मैं राजनीतिक प्राणी हूँ मेरा जीना मरना सब राजनीति में ही होगा। लेकिन उन्हें अनिच्छापूर्वक उपराष्ट्रपति जैसे गैर राजनैतिक पद पर धकेल दिया गया। शेखावत ने बिना किसी ना-नुकर के उस दायित्व को निभाया और बखूबी निभाया, यहाँ तक कि पार्टी के निर्देश पर घोषित हार वाला राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा, क्योंकि वे रणछोड़ नहीं बनना चाहते थे।
फिर भी लाख सवालों का सवाल यह था कि शेखावत लोकसभा का चुनाव क्यों लड़ना चाहते थे? क्या वे महज संसद में पहुँचने के लिए ऐसा कर रहे थे या उनका तिर्यक लक्ष्य कुछ और था? वैसे उन्होंने अपने मन्सूबे छिपाये भी नहीं थे। तमाम विकल्प खुले रखने की बात कहने के साथ-साथ उन्हें प्रधानमंत्री बनने में भी कोई गुरेज नहीं था। लेकिन क्या वे एक अकेले चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री बन सकते थे? अध्यक्षीय चुनाव होता तो बात कुछ और थी। संसदीय प्रजातंत्र में दलीय समर्थन के बिना कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था और समर्थन के नाम पर उनके पास केवल कुछ राजनीतिक दलों के मुखियाओं की शुभाशंषाएं थी। भाजपा शेखावत से पहले ही पल्ला झाड़ चुकी थी। ऐसे में दूसरे दल भी उन्हें अपना सिरमौर क्यों बनाने लगें? इस तरह उनकी दावेदारी राष्ट्रपति चुनाव की तरह प्रथम दृष्ट्या ही कमजोर दिख रही थी।
लेकिन सवाल यह भी था कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व (जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी दोनों शामिल थें) ने जिस तरह उन्हें राजनैतिक हाशिए पर धकेलने का गुनाह किया, उसे देखते हुए शेखावत भाजपा और आडवाणी की चिन्ता क्यों करते? तो क्या वे अपनी खुन्नस निकालने के लिए चुनाव लड़ना चाहते थे? शेखावत के राजनीतिक जीवन और उनकी कार्यशैली को देखते हुए कहा जा सकता था कि वे ऐसा करने वालों में नहीं थे। दरअसल पिछले दो दशकों से लोकसभा चुनाव का परिदृश्य बिखरा-बिखरा ही रहा था। आगामी लोकसभा चुनाव का परिदृश्य इससे भिन्न होगा, ऐसी उम्मीद नहीं थी। कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कथित तीसरा मोर्चा कोई भी अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिख रहा था। वह गठबंधन की सरकारों का दौर था। जिसमें दिग्गज धूल चाटते और अल्पज्ञात कुलशील राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री बन रहे थे। ऐसे में शेखावत लोकसभा का आगामी चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों के बीच अपनी दावेदारी भी रखना चाहते थे। चुनाव लड़ने की उनकी जिद का यही सार-संक्षेप था।
दलीय नेतृत्व को ठेंगा दिखाकर शेखावत के चुनाव लड़ने को लोग अनैतिक कह रहे थे। लेकिन ये वे ही लोग थे जो यह मान कर चल रहे थे कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को ही बहुमत मिलेगा और लालकृष्ण आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनेगे। उस समय देश में जिस तरह की दलीय स्थितियाँ थी उन्हें देखते हुए कोई राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता था कि उसे ही बहुमत प्राप्त होगा और अमुक प्रधानमंत्री बनेगा। सब कुछ चुनाव परिणामों पर निर्भर था, अलबत्ता यह तय था कि सरकार गठबंधन की ही बनेगी। दो दशकों के चुनाव परिणाम साक्षी थे कि पी. एम. इन वेटिंग धरे रह गये थे और ऐरे-गैरे प्रधानमंत्री का पद पा गये थे।
यहीं आकर शेखावत की दावेदारी का महत्व बढ़ जाता था। वे देश के वरिष्ठतम राजनेता थे। देश के सबसे बड़े प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ-साथ उन्हें उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद का भी अनुभव हासिल था। गठबंधन की राजनीति में वे माहिर थे। लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बावजूद वे पूरी तरह बेदाग, निष्पक्ष और निर्विवाद थे। उनकी मैत्रीपूर्ण राजनैतिक शैली का ही नतीजा था कि भाजपा से अधिक उनके चाहने वाले अन्य राजनैतिक दलों में मौजूद थे। उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस के सांसदों तक ने उनके समर्थन में मतदान किया था। भाजपा में वे एक अकेले ऐसे नेता थे जिन पर अल्पसंख्यक आँख मूँद कर भरोसा कर सकते थे। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान समाजवादी नेता मधुलिमये ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से कहा था कि बाबरी मस्जिद की सुलह की कोशिशों में भैरोंसिंह शेखावत को डालना चाहिए, क्योंकि उनकी राजनीतिक समझ किसी भी भाजपाई नेता से बेहतर है।
पिछले लोकसभा चुनावों में शेखावत प्रधानमंत्री पद के बेहतर दावेदार हो सकते थें। भाजपा यदि अपने ऐलान से आगे बढ़कर सोचती तो वे उसके लिए भी बड़े काम की चीज हो सकते थे। राजनीतिक सूझ, सरकार चलाने का अनुभव, कुशल नेतृत्व, सफल सत्ता संचालन, बेदाग छवि, अन्य दलों में स्वीकार्यता आदि गुणों के कारण हर हाल में वे आडवाणी से इक्कीस थे। उधर इतिहास में एक ऐसा चुनाव भी दर्ज था, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की मौजूदगी के बावजूद नान सेकुलर छवि के चलते उनकी सरकार एक सांसद का समर्थन जुटाने में असमर्थ रही थी। आडवाणी के नेतृत्व में ऐसा संकट और बढ़ जाता था। संकट के ऐसे किसी भी समय में शेखावत भाजपा के लिए अमोध वरदान सिद्ध हो सकते थे।
भैंरोसिंह शेखावत के चुनाव लड़ने के निर्णय पर प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी की ने जनसत्ता में लिखा थाः कोई कद्दावर नेता चुनाव के मैदान में हो तो प्रधानमंत्री का पद अपने आप खाली हो जाता है, क्योंकि इससे पार्टियों की तय लाइन और उम्मीदवारों के दावे बेकार हो जाते है। कौन जानता है कि जनता क्या चाहती है और किसे मौका दे देगी? चुनाव का चरित्र ही इस तरह की अनिश्चतताएं पैदा करता है पार्टियों और गठबंधनों ने पहले से भले ही कुछ भी तय कर रखा हो। भाजपा और राजग के बाहर खड़े भैंरोसिंह शेखावत यूपीये में शामिल कुछ पार्टियों के लिए भी कम वांछनीय नहीं होंगे। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पंवार और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह से भैंरोसिंह शेखावत की नजदीकी सिर्फ निजी नहीं है, राजनीतिक भी है। अगर पार्टियों और गठबंधनों के मौजूदा स्वरूप बदलते है तो कल आप देखेंगे कि कौन किसके साथ है। अगर भैंरोसिंह शेखावत का चुनाव के मैदान में उतरना ऐसी राजनीतिक खलबली मचाता है तो न सिर्फ चुनाव बड़े दिलचस्प हो जाएंगे उनमें से एक नई राजनीति भी निकल कर आ सकती है जो चले आ रहे ढाँचों और समीकरणों और नारों को बदल दे सकती है। ऐसा नहीं है कि यह सब वे कर सकते है या करेंगें। लेकिन उनका उतरना ऐसे परिवर्तन का निमित्त हो सकता है।’
तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे और उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद पर रहने के पश्चात् 86 साल की उम्र में फिर से सक्रिय राजनीति में लौटने की शेखावत की तलब को लोगो ने राजनीतिक लिप्सा कहा। लेकिन जो लोग शेखावत को निकट से जानते थे उनके लिए वह अप्रत्याशित नहीं था, बल्कि शेखावत जैसे जमीन से जुड़े नेता का सक्रिय राजनीति से दूर चला जाना जरूर अपने आप में अन्तर्विरोध-पूर्ण था। शेखावत की इस तलब को सही संदर्भ में समझने के लिए एक घटना का उल्लेख जरूरी है। शेखावत तब तीसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। एक जैन आश्रम के आयेाजन में वे बतौर मुख्य अतिथि शिरकत कर रहे थे। समारोह में जैनाचार्य ने अपने उद्बोधन में कहा कि शेखावत तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लिहाजा उम्र के इस मोड़ पर उन्हें अपने आध्यात्मिक उत्थान के बारे में सोचना चाहिए। उम्मीद के विपरीत शेखावत का सम्बोधन चैंकाने वाला था। उन्होंने कहा कि यदि मुझे पता होता कि मेरे यहाँ आने का यह आशय निकाला जाएगा तो मैं हरगिज नहीं आता। मैं राजनीतिक प्राणी हूँ मेरा जीना मरना सब राजनीति में ही होगा। लेकिन उन्हें अनिच्छापूर्वक उपराष्ट्रपति जैसे गैर राजनैतिक पद पर धकेल दिया गया। शेखावत ने बिना किसी ना-नुकर के उस दायित्व को निभाया और बखूबी निभाया, यहाँ तक कि पार्टी के निर्देश पर घोषित हार वाला राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा, क्योंकि वे रणछोड़ नहीं बनना चाहते थे।
फिर भी लाख सवालों का सवाल यह था कि शेखावत लोकसभा का चुनाव क्यों लड़ना चाहते थे? क्या वे महज संसद में पहुँचने के लिए ऐसा कर रहे थे या उनका तिर्यक लक्ष्य कुछ और था? वैसे उन्होंने अपने मन्सूबे छिपाये भी नहीं थे। तमाम विकल्प खुले रखने की बात कहने के साथ-साथ उन्हें प्रधानमंत्री बनने में भी कोई गुरेज नहीं था। लेकिन क्या वे एक अकेले चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री बन सकते थे? अध्यक्षीय चुनाव होता तो बात कुछ और थी। संसदीय प्रजातंत्र में दलीय समर्थन के बिना कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था और समर्थन के नाम पर उनके पास केवल कुछ राजनीतिक दलों के मुखियाओं की शुभाशंषाएं थी। भाजपा शेखावत से पहले ही पल्ला झाड़ चुकी थी। ऐसे में दूसरे दल भी उन्हें अपना सिरमौर क्यों बनाने लगें? इस तरह उनकी दावेदारी राष्ट्रपति चुनाव की तरह प्रथम दृष्ट्या ही कमजोर दिख रही थी।
लेकिन सवाल यह भी था कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व (जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी दोनों शामिल थें) ने जिस तरह उन्हें राजनैतिक हाशिए पर धकेलने का गुनाह किया, उसे देखते हुए शेखावत भाजपा और आडवाणी की चिन्ता क्यों करते? तो क्या वे अपनी खुन्नस निकालने के लिए चुनाव लड़ना चाहते थे? शेखावत के राजनीतिक जीवन और उनकी कार्यशैली को देखते हुए कहा जा सकता था कि वे ऐसा करने वालों में नहीं थे। दरअसल पिछले दो दशकों से लोकसभा चुनाव का परिदृश्य बिखरा-बिखरा ही रहा था। आगामी लोकसभा चुनाव का परिदृश्य इससे भिन्न होगा, ऐसी उम्मीद नहीं थी। कांग्रेस हो या भाजपा या फिर कथित तीसरा मोर्चा कोई भी अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिख रहा था। वह गठबंधन की सरकारों का दौर था। जिसमें दिग्गज धूल चाटते और अल्पज्ञात कुलशील राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री बन रहे थे। ऐसे में शेखावत लोकसभा का आगामी चुनाव लड़कर प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदारों के बीच अपनी दावेदारी भी रखना चाहते थे। चुनाव लड़ने की उनकी जिद का यही सार-संक्षेप था।
दलीय नेतृत्व को ठेंगा दिखाकर शेखावत के चुनाव लड़ने को लोग अनैतिक कह रहे थे। लेकिन ये वे ही लोग थे जो यह मान कर चल रहे थे कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को ही बहुमत मिलेगा और लालकृष्ण आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनेगे। उस समय देश में जिस तरह की दलीय स्थितियाँ थी उन्हें देखते हुए कोई राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता था कि उसे ही बहुमत प्राप्त होगा और अमुक प्रधानमंत्री बनेगा। सब कुछ चुनाव परिणामों पर निर्भर था, अलबत्ता यह तय था कि सरकार गठबंधन की ही बनेगी। दो दशकों के चुनाव परिणाम साक्षी थे कि पी. एम. इन वेटिंग धरे रह गये थे और ऐरे-गैरे प्रधानमंत्री का पद पा गये थे।
यहीं आकर शेखावत की दावेदारी का महत्व बढ़ जाता था। वे देश के वरिष्ठतम राजनेता थे। देश के सबसे बड़े प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ-साथ उन्हें उपराष्ट्रपति जैसे शीर्ष संवैधानिक पद का भी अनुभव हासिल था। गठबंधन की राजनीति में वे माहिर थे। लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बावजूद वे पूरी तरह बेदाग, निष्पक्ष और निर्विवाद थे। उनकी मैत्रीपूर्ण राजनैतिक शैली का ही नतीजा था कि भाजपा से अधिक उनके चाहने वाले अन्य राजनैतिक दलों में मौजूद थे। उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस के सांसदों तक ने उनके समर्थन में मतदान किया था। भाजपा में वे एक अकेले ऐसे नेता थे जिन पर अल्पसंख्यक आँख मूँद कर भरोसा कर सकते थे। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान समाजवादी नेता मधुलिमये ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से कहा था कि बाबरी मस्जिद की सुलह की कोशिशों में भैरोंसिंह शेखावत को डालना चाहिए, क्योंकि उनकी राजनीतिक समझ किसी भी भाजपाई नेता से बेहतर है।
पिछले लोकसभा चुनावों में शेखावत प्रधानमंत्री पद के बेहतर दावेदार हो सकते थें। भाजपा यदि अपने ऐलान से आगे बढ़कर सोचती तो वे उसके लिए भी बड़े काम की चीज हो सकते थे। राजनीतिक सूझ, सरकार चलाने का अनुभव, कुशल नेतृत्व, सफल सत्ता संचालन, बेदाग छवि, अन्य दलों में स्वीकार्यता आदि गुणों के कारण हर हाल में वे आडवाणी से इक्कीस थे। उधर इतिहास में एक ऐसा चुनाव भी दर्ज था, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की मौजूदगी के बावजूद नान सेकुलर छवि के चलते उनकी सरकार एक सांसद का समर्थन जुटाने में असमर्थ रही थी। आडवाणी के नेतृत्व में ऐसा संकट और बढ़ जाता था। संकट के ऐसे किसी भी समय में शेखावत भाजपा के लिए अमोध वरदान सिद्ध हो सकते थे।
भैंरोसिंह शेखावत के चुनाव लड़ने के निर्णय पर प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी की ने जनसत्ता में लिखा थाः कोई कद्दावर नेता चुनाव के मैदान में हो तो प्रधानमंत्री का पद अपने आप खाली हो जाता है, क्योंकि इससे पार्टियों की तय लाइन और उम्मीदवारों के दावे बेकार हो जाते है। कौन जानता है कि जनता क्या चाहती है और किसे मौका दे देगी? चुनाव का चरित्र ही इस तरह की अनिश्चतताएं पैदा करता है पार्टियों और गठबंधनों ने पहले से भले ही कुछ भी तय कर रखा हो। भाजपा और राजग के बाहर खड़े भैंरोसिंह शेखावत यूपीये में शामिल कुछ पार्टियों के लिए भी कम वांछनीय नहीं होंगे। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पंवार और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह से भैंरोसिंह शेखावत की नजदीकी सिर्फ निजी नहीं है, राजनीतिक भी है। अगर पार्टियों और गठबंधनों के मौजूदा स्वरूप बदलते है तो कल आप देखेंगे कि कौन किसके साथ है। अगर भैंरोसिंह शेखावत का चुनाव के मैदान में उतरना ऐसी राजनीतिक खलबली मचाता है तो न सिर्फ चुनाव बड़े दिलचस्प हो जाएंगे उनमें से एक नई राजनीति भी निकल कर आ सकती है जो चले आ रहे ढाँचों और समीकरणों और नारों को बदल दे सकती है। ऐसा नहीं है कि यह सब वे कर सकते है या करेंगें। लेकिन उनका उतरना ऐसे परिवर्तन का निमित्त हो सकता है।’
आडवाणी जी की व्यक्तिगत राजनैतिक लिप्सा के चलते शेखावत जी को किनारे किया गया था लेकिन इसके चलते भाजपा ही किनारे लाग ली|
जवाब देंहटाएंआदरणीय बाबोसा की कल जयंती थी,मैं भी दिल्ली से उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करने सर्व-धर्म सदभाव सभा में जयपुर हाजिर हुआ था|