शुक्रवार, 7 मई 2010

कारोबारी स्वार्थ के लिए

अमेरिकी संस्थान ’पीपल एण्ड दी प्रेस’ द्वारा पिछले दिनों कराये गये एक सर्वे के अनुसार 63 प्रतिशत अमेरिकी लोगों का मानना है कि अधिकांश खबरें सच नहीं होती। इससे पहले वर्ष 1985 में कराये गये सर्वे में ऐसा मानने वाले 34 प्रतिशत थे। संस्थान के निदेशक एंड्रयू कोहुट का कहना है कि मीडिया के प्रति लोगों की ऐसी धारणा दिनों-दिन मजबूत हो रही है। अमेरिका में इन दिनों अधिकतर लोग यह मानने लगे हैं कि समाचारों के मामले में पत्रकार न केवल पक्षपात करते हैं, बल्कि उन्हें अपना काम भी ठीक ढंग से नही आता। सर्वे के परिणामों का निष्कर्ष है कि अखबार और चैनल मीडिया पाठकों/दर्शकों का ध्यान अपनी ओर बलात् खींचने के लिए झूठ और सनसनी का सहारा लेते हैं और खेद की बात हैं कि ऐसा मानने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।

अखबार हों या चैनल मीडिया, जाहिर-सी बात है कि ये खबरों का कारोबार करते हैं। हर कारोबार की तरह खबरों के कारोबार की भी कुछ शर्तें होती हैं, जिनको दरकिनार कर खबरों कारोबार नहीं चलाया जा सकता। हर कारोबार के कुछ व्यावसायिक गुर होते हैं, जिन्हें धन्धे के लिए अमल में लाना लाजमी होता है। क्योंकि कारोबार को धार्मिक संस्थान की तरह नहीं चलाया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि हर कारोबार की बुनियादी शर्त है उसकी विश्वसनीयता। उसमें कमी आते ही वह न केवल साख गंवा बैठता है, बल्कि औंधें मुंह भी धड़ाम से आ गिरता है। फिर पत्रकारिता और प्रसारण कर्म तो धन्धे के साथ-साथ मिशन भी हैं। बल्कि मिशन पहले और धन्धा बाद में। छपे शब्द के प्रति लोगों की आस्था का लम्बा इतिहास रहा है। न जाने कितने लोगों ने जान पर खेल कर इस आस्था को कायम किया है। लेकिन पीपल एण्ड दी प्रेस का सर्वे हमें आगाह करता है कि यह आस्था इन दिनों बड़ी तेजी से दरक रही है।

पिछले समय में भी पत्रकारिता का दुरूपयोग होता रहा हैं। इसीलिए ’पीत पत्रकारिता’ जैसा शब्द चलन में आया। लेकिन इन दिनों अखबार और चैनल मीडिया अपने कारोबारी स्वार्थ के लिए जिस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं वह बेहद चिंताजनक है। इसमें चैनल मीडिया तो जैसे हदें लांघ रहा है। खबरों का सनसनीखेज इस्तेमाल करने के साथ-साथ वह इतिहास, धर्म, दर्शन, आध्यात्म किसी का भी दुरूपयोग करने से नही हिचकता। फिर भूत-प्रेत, जादू-टोना, अंधविश्वास यहां तक कि लोगों के निजी जीवन मे ताक-झांक तो एक सामान्य बात हो गयी है।

सच यह भी है कि मीडिया आज की सर्वाधिक नियामक शक्ति हो गया हैं। हर दौर में कोई चीज केन्द्रीय नियामक शक्ति की भूमिका निभाती रही हैं। बाकी तमाम चीजें तो उसीसे नियंत्रित होती रही। प्राचीन समाजों में धर्म ऐसी ही केन्द्रीय नियामक शक्ति था। मध्यकाल से लेकर पिछली सदी तक राजनीति ऐसी ही केन्द्रीय शक्ति रही। लेकिन आज की केन्द्रीय नियामक शक्ति निष्चय ही मीडिया है। लोगों तक पहुंचने कि व्यापक सामर्थ ने उसे अधिक ताकतवर बनाया है। आज वह लगभग परम बली हो गया है और निरंकुश भी। आज जो तमाम मुददे् फजां में तारी है उनके पीछे मीडिया हैं। मीडिया चाहे जिस चीज को मान्यता दिला दे, चाहे जिसे खारिज कर दे।

मीडिया चीजों को कैसे ईश्यू बनाता हैं कैसे रस ले लेकर उनका कारोबार करता है और मतलब सध जाने पर कैसे उनसे पल्ला झाड़ लेता है। इसकी बेहतरीन मिसाल ’जसवन्त सिंह जिन्ना प्रकरण’ था। जसवन्त सिंह ने कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अपनी पुस्तक ’जिन्ना इतिहास के आईने मे’ यह सिद्ध करने की कोषिष की थी कि देश के विभाजन के लिए जिन्ना से अधिक नेहरू और सरदार पटेल उत्तरदायी थे। यह अपने आप में कोई नयी बात नहीं थी। इससे पहले भी भारत और पाकिस्तान के अनेक लेखक इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थें। लेकिन मीडिया ने इस मुददे् को ऐसे उछाला जैसे वह जसवन्त सिंह की कोई मौलिक खोज हो। पार्टी के स्टेण्ड से इतर इस स्थापना को लेकर पहले तो मीडिया ने जसवन्त सिंह को कठघरे में खड़ा किया। बाद में तमाम चैनल और अखबार हाथ धोकर जसवन्त सिंह के पीछे पड़ गये। इस हाय-तौबा से घबरा कर जैसे ही भाजपा ने जसवन्त सिंह को पार्टी से निष्कासित किया तो मीडिया पलटकर वैचारिक स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए जसवन्त सिंह का तरफदार हो गया। बीजेपी और जसवन्त सिंह की मिट्टी पलीद करने वाले इस कारोबारी दोहन के बाद मिडिया ने इस मुद्दे से तौबा कर ली।