सोमवार, 25 मई 2009

अन्तिम अरदास

लौटते हुए कवि
लौटा देता है स्रष्टा को
दिक् और काल
तुकबन्दी की पुरानी आदत
कला और साँस
मिट्टी और नियति

मृत्यु के चरम समय में
कवि करता है अरदास
धर्मगुरुओं की तरह
उसे मिले एक और क्षण
एक और साँस
जीवन सूत्र को जोड़ने के लिए

लेकिन यह पढ़कर
मत मान बैठना कि
ब्रह्माण्ड के विस्तार के लिए
केवल कवि उत्तरदायी है
और ब्रह्माण्ड तथा मूर्खता का
नहीं है कोई ओर-छोर

यदि तुम ऐसा करोगे
तो चूकोगे स्वयं ही
ठीक प्लेटो की तरह
जिसने ख़ारिज करना चाहा
कवियों को अपने गणतंत्र से

बहुत रहस्यमय है और जटिल भी
लेने और लौटाने की प्रक्रिया
चीजे़ं अक्सर नहीं दिखाती उन रंगों को
जिन्हें वे स्वीकार कर रही होती हैं
चीजे़ हमेषा दिखती हैं
अपनी अस्वीकृति के रंगों में ही

एक कौंध की तरह है
सच्चे कवि का होना
जिसके सघन प्रकाष में
हम फिर-फिर दोहराते हैं
जीवन का मूल-पाठ

लौटते हुए कवि ख़र्च कर देता है
अपने आपको पूरी तरह
ताकि अन्तिम उजास में
फिर से दिख जाये
जीवन का होना
जीवन का जादू-टोना

तुम इसे मोक्ष कहो
यह ज़रूरी नहीं है

अन्य के प्रति

पुराणों में निहित सारतत्व को लेकर प्रसिद्ध सूक्ति है कि-
अष्टादश पुराणस्य, व्यासस्य वचनम् द्वयं,
परोपकाराय पुण्यायाः पापाय परपीड़नम्।
अर्थात अठारह पुराणों का सार महर्षि वेद व्यास के इन दो वचनों में समाया है कि परोपकार ही सबसे बड़ा पुण्य और पर पीड़ा ही सबसे बड़ा पाप है। भारत में धुर वैदिक काल से यह धारणा बलवती रही है कि अन्य परमात्मा स्वरूप है। अतः अन्य के प्रति हित भाव ही धर्म और अहित भाव ही अधर्म है।
लेकिन इस मान्यता के ठीक विपरीत प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक ज्याँ पाल सात्र्र का कथन है कि - ’द अदर इज हेल’। दूसरा ही नरक है। सात्र्र के जीवन काल में और उसके बाद भी उनका यह कथन बौद्धिकों के बीच खासा चर्चित रहा कि जीवन की नारकीय स्थितियों के लिए केवल अन्यत्व उत्तरदायी है।
परस्पर विरोधी लगते ये कथन क्या पूर्व और पश्चिम की दो भिन्न जीवन दृष्टियों के परिचायक है या ये अपने विरोधी स्वरों में जीवन सत्य के दो भिन्न आयामों की ओर इशारा कर रहे है? इन कथनों में निहीत आशय को समझनें के लिए हमें गीता के उस संदर्भ को समझना होगा जहाँ श्रीकृष्ण  अर्जुन को जीवन का मर्म समझातें हुए कहते है कि स्वधर्म के निर्वाह में ही कल्याण है। अन्य का महान धर्म भी हानि का कारक है। बल्कि कृष्ण तो यहाँ तक कहते है कि अन्य के महान धर्म मंे जीने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना भी श्रेयस्कर है।
‘स्व‘ और ‘पर‘ के इस रहस्य को सुलझाने के लिए हमें सृष्टि विषयक अग्नि-सोमात्मिका वैदिक अवधारणा  को समझना होगा। जिसके अनुसार सृष्टि मूलतः अग्नि और सोम तत्वों के सह-समन्वय का परिणाम है। अग्नि विस्तार एवं सोम संकोच तत्व का प्रतिनिधि है। हमारे चारों ओंर तमाम जैविक इकाइयां जिस तरह फूल फल रही है, विकसित हो रही है वह अग्नि तत्व का कार्य है। लेकिन ये तमाम इकाइयां अपने विशिष्ट स्वरूप में निबद्ध है  और प्रत्येक इकाई का अपना एक सुनिश्चित गठन है- यह सोम तत्व की महिमा है। इन्ही तत्वों के सह-समन्वय से आगे चलकर सृष्टि विकास के क्रम में दो तरह की इकाइयां विनिर्मित हुई। पहली अग्निधर्म इकाई, जिसमें अग्नि प्रमुख तत्व है, सोम गौण। दूसरी सोमधर्मी इकाई जिसमे सोम प्रमुख तत्व है, अग्नि गौण। दोनो में है दोनो ही लेकिन नियामक और अनुसरणकत्र्ता के रूप में वरीयता और गौणत्व की भिन्नता है।
अग्निधर्मी इकाईं में अग्नि ’स्व’ का  और सोम ’परतत्व’ का पोषक है। क्रिया के स्तर पर अग्नि धर्म इकाई में अग्नि नियामक तत्व है, सोम अनुसरणकर्ता। ठीक इसी तरह सोमधर्मी इकाई में सोम नेतृत्व करता है और अग्नि उसका अनुसरण। अग्नि जहाँ चीजों का विस्तार करता है वहीं सोम उन्हे पुष्ट करता है। दोनों के इस सह-समन्वय से ही सृष्टि फल-फूल रही है।
सृष्टि विकास का कार्य तभी तक संभव है, जब तक ये दोनो तत्व एक दूसरे का सहयोग करते हुए अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करतें रहें। अर्थात मुख्य हो या गौण भूमिका अग्नि अपने विस्तार धर्म का और सोम अपने पुष्टि धर्म का पालन करते चले। इसके विपरीत स्थिति में अग्नि सोम का और सोम अग्नि का अनुकरण करने लगते है। उस स्थिति के आते ही न केवल सृष्टि विकास बाधित होता है बल्कि वह प्रक्रिया अततः दोनों के नाश का कारण भी बनती है।
इस तरह अस्तित्वगत सच्चाई के लिए अन्य का होना एक आवश्यक शर्त हैं। अस्तित्व है तो मूल के साथ ही अन्य भी उसमें पूरक की तरह अवश्य होगा। यदि अन्य नहीं बचा तो अस्तित्व भी नहीं बचेगा। अस्तित्व के लिए अन्य अपरिहार्य है। और यदि ऐसा है तो अस्तित्व संरक्षण के लिए जीवन में स्वधर्म का पालन करते हुए अन्य का हित चिन्तन भी परमावश्यक है  क्योंकि अनुकूल स्थिति में अन्य के प्रति किया गया जीवन व्यवहार ही प्रतिकूल स्थित में स्व के प्रति अन्य का व्यवहार तय करता है।
लेकिन यहीं उस  सूक्ष्म भेद को भी समझना आवश्यक है कि अन्य का अनुसरण एवं अन्य का अनुकरण दो भिन्न स्थितियां है। अनुसरण में हम जहाँ अन्य का सहयोग करते है वहीं अनुकरण में अन्य की वृत्ति का पालन करने लगते है। अन्य का सहयोग और अन्य की नकल निश्चय ही दो भिन्न बातें है। अन्य का सहयोग जीवन की बुनियादी जरूरत है। लेकिन अन्य का अनुकरण किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं। श्रीकृष्ण ने इसी स्थिति को अन्य के महान धर्म में भी हानि और सात्र्र ने अन्य का नरक कहा है। 

मंगलवार, 12 मई 2009

माँ

मेरे लिए माँ को जानना
जख्म के बीचों बीच से गुजरना है।

आज ही बड़े तड़के
मुझे माँ का खयाल आया
चूल्हे की मंद आग पर
बटलोही में सीझती
माँ हौले-हौले गुनगुना रही थी
चपाती के गोल फूले पेट पर चमकता
उनका बड़ा काला मस्सा
मंद-मंद हँस रहा था
ब्यालू करते हुए मैं खुश था
माँ का होना
ब्यालू का मुकम्मिल होना है


बड़े तड़के ही मैं लौटा था
गूगन कहार की गाय को बिवाकर
ब्याने के पहले की पीड़ा से छटपटाती
हाँफती-काँपती थरथराती
रंभाती डकराती वह गाय
तड़पती सदी के आखिरी मुहाने पर पहुँच
एक सुन्दर सलौने बछड़े में बदल गयी
लहू कीच-कादे से सनी
एक आत्मीय आग्रही हौंक
किलक कर उठी
और बाड़े को फाँद मेड़ पर आ गई
जहाँ दूब थी हरी-हरी
हरी-भरी कल्ले फोड़ती
खुश खिली-खिली सी