रविवार, 15 नवंबर 2009

स्मृति और स्वप्न

पिता अपनी तमाम असफलताओं को 
बदल लेना चाहते हैं सफलताओं में
अपने पुत्र में

पिता के स्वप्न को ढोता पुत्र
पिता की स्मृति भी तो है
नहीं जानते पिता पितृत्व से ग्रस्त

पिता के स्वप्न को ढोता पुत्र
एक दिन लौट आता है
पिता की स्मृति में पिता बन कर

पिता बन कर लौटा पुत्र अचानक जीने लगेगा
एक दिन अपने पुत्र की स्मृति में
पिता का स्वप्न बन कर

होते हुए होना

जड़ें ठीक से बताती हैं 
होने के बारे में

मूल की महिमा को
छिपाये रहते हैं वृक्ष

दिखने से दूर
होते हुए होना

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

दरअसल

दरअसल उजाला ओढ़ने को
हम इस कदर उतावले हैं
कि धूप के इरादों की नेकनीयती पर
शुब्हा कर ही नहीं पाते
हर बार चमाचम सूरज की चाह में
हम ग़लत मौसम चुनते हैं
और मार खाते हैं

वे हमारी कमजोरी से वाकिफ़ हैं
और चौगिर्द फैले अँधेरे के खिलाफ़
हमें हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं

उन्हें मालूम है
घुप्प अँधेरी रात में
मशाल दिखा कर ही
पतंगे को बरगलाया जा सकता है
मर मिटने को
दीवाना बनाया जा सकता है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

शहर और शगल

देखा आपने
उसे लेकर
समूचा शहर किस कदर परेशान है
गोया वह आदमी नहीं आबरू है
जिसकी फ़िक्र हर शख़्स को है

अब आप देखिए
कल तक उन आबदार अंगूरी आँखों में
वह महज घटिया और बेहूदा क़िस्म की
एक फ़िजूल-सी चीज़ था
लेकिन ऐलान होते ही
उन्होंने उसे नाबदान से उठाया
और बेशकीमती गुलदस्ते में सजा कर
ड्राइंग रूम में रख दिया

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

पेड़ की तरह

एक पेड़ की तरह हो
हम सबका जीना
उम्र भर का हरापन
ऋतुओं का प्राणदायी आवर्तन
कुछ रंग कुछ गंध
कुछ फूल-फल
शीतलता जीवन की
और भरपूर समिधाएं

कब आयेगा वह दिन
जब काटे जाने पर भी 
नहीं जागेगी मुझमें 
बदला लेने की इच्छा

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

स्वाभाविक और जरूरी

कुछ लोग मुझे पसंद करेंगे
कुछ नापसंद
यह स्वाभाविक है
और जरूरी भी
दुनिया के सन्तुलन के लिए

लगभग लुच्चापन है यह कोशिश
कि सभी मुझे पसंद करें

दियासलाई

आदमी की ईजादों में
दुर्लभतम् ईजाद है दियासलाई
वह भक् से जलती है उजाले में
और हो जाती है ओझल

आदमी कब सीखेगा जीना
क्षण की त्वरा में

सोमवार, 21 सितंबर 2009

शशि थरूर के गरूर के बहाने

विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का गरूर दोतरफा मार करने वाला है। जो लोग केवल कैटल-क्लास में उलझ कर रह गये है वे वाकई बहुत मासूम है। अलबत्ता कैटल-क्लास वाली बात थरूर ने कही भी नहीं। वह तो ट्विटर साइट में एक पत्रकार ने उनके मुँह में डाली। थरूर सहज होते तो पत्रकार के व्यंग को अमिधा में बदल सकते थे। एक अखबारी रिर्पोटिंग के बाद प्रणव मुखर्जी ने एम. एस. कृष्णा और थरूर को जिस तरह हड़काया और मंहगे पाँच सितारा होटल को छोड़कर सरकारी आवास में जाने की सीख दी उससे थरूर का असहज होना स्वाभाविक था। उन्होने उसी तंज में जवाब दिया। एक राजस्थानी कहावत के अनुसार वह ‘भाव के भाव सलटाने’ वाली बात थी। थरूर ने अपनी और से न उसमें कुछ जोड़ा और न घटाया। यह हिन्दुस्तान की अवाम के लिए गाली है तो है। अलबत्ता इकाओंओमी-क्लास में हवाई सफर करने वालों को जो कुलीन तबका मवेशी में शुमार कर रहा है, वह सेन गुप्ता आयोंग की रिपोर्ट वाले 80 फीसदी हिन्दुस्तानी अवाम को (जो बीस रूपये रोज में गुजारा करने को विवश है) किन कीडे़-मकोड़ों में शुमार करेगा यह सोचकर कलेजा काँप जाता है।
थरूर ने ट्विटर पर अफसोस जताया है कि कैटल-क्लास उनकी डिलीवरी नहीं थी वह शब्द पत्रकार की ओंर से आया था। उस पर जिस तरह का बावेला मचा है, वह बेतुका है। उन्होने यह भी लिखा कि उनका आशय इकाॅनोमी-क्लास वालों को ढोर-डंगर बताने का हरगिज नहीं था। यह टिप्पणी तो उन्होंने एयरलाइन्स को लेकर की थी जो भेड़-बकरियों की तरह ठूँसकर यात्रियों को ले जाती हैं। उन्होने लिखा कि मुझे बताया गया कि मलयालम में उसका अनुवाद और भी बुरा है,ं खासतौर पर जब वह बिना सन्दर्भ के कहा जाए। लिहाजा मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मुझे लोगो को ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनकी तरफदारी करते हुए कहा है कि भारतीयों को अंग्रेजी का हंसी-ठठ्ा समझ में नहीं आया। बात भी सच है कि नकचढ़ी अंग्रेजी का मुहावरा भारतीय लोगांे को समझ में आयें भी कैसे? अंग्रेजीदा तारीफ में भी अपनी हिकारत जाहिर करने से बाज नहीं आते। मुम्बई कि झोपड़पट्टी में रह कर अपने जीवनानुभव से कौन बनेगा करोड़पती प्रतियोगिता को फतह करने वाले संघर्षशील युवक के जीवन पर बनी फिल्म के टाइटल के लिए भी उनके पास ‘स्लमडॅाग मिलेनेरियम’ जैसा शब्द है। ऐस लोगो को गुदड़ी का लाल कहने के अभ्यासी भारतीयों को ऐसा ठठ्ठा समझ में नहीं आ सकता।
लेकिन तमाम बातों के बावजूद थरूर को बरी नहीं किया जा सकता। वे एक एरिस्टोकेट डिप्लोमेट होने के साथ-साथ एक लेखक भी है, जिससे संवेदशील होने की उम्मीद की जाती है। फिर थरूर जब तब मानववाद के समर्थन में लेख भी लिखते रहे है। उनकी इस राजनैतिक मानवीय कूवत की कद्र करते हुए भारत सरकार ने उनका नाम संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद के लिए प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या इस मामले में उनसे श्लील अभिव्यक्ति की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। खास तौर जब समूचा मुल्क अकाल की चपेट में हो और आम आदमी का जीना दूभर हो गया हो तो ऐसे में एक जन-प्रतिनिधि से किफायतसारी की बात कहना क्या गुनाह में शामिल हैं?
लेकिन बात असली नुक्ते की। टिवट्र साईट पर पत्रकार ने थरूर से पूछा था कि क्या अगले केरल दौर में वे कैटल-क्लास में सफर करना पंसद करेंगें? थरूर का जवाब था कि निश्चित तौर पर, हमारी पवित्र गउओं में एकजुटता दिखाते हुए कैटल-क्लास में ही। अब लोग है कि उनके संवाद के उत्तर-पद में ही उलझ कर रह गये है। जबकि असल बात उसके पूर्व-पद में है कि पवित्र गउओं से एकजुटता दर्शित करने के लिए कैटल-क्लास में सफर करना उनकी विवशता है। खेद की बात है कि उनके कथन की व्यजंना और निहितार्थ की ओर किसी का ध्यान नहीं गया- न मिडिया का, न कांग्रेस का और न विपक्ष का- कि पवित्र गउओं में एकजुटता दिखाना क्यों लाजिमी है और कौन है ये पवित्र गउएं। क्या प्रवण मुखर्जी? क्या सोनिया गांधी? क्या वे तमाम संवेदशील लोग जो देश की मौजूदा हालत में किफायतदारी पर जोर देना उचित समझते है। मामला यहीं तक सीमित नहीं है। बात बारीक है संवाद के पूर्व-पद का तंज गहरी चिकोटी काटने वाला है। शशि थरूर लाख अंग्रेजीदा कुलीन तबके से सम्बद्ध हो वे देश के ख्यातिनामा बुद्धिजीवी है जिन्हाने इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की कमी खामियों पर भी कलम चलाने में हिचक नहीं दिखाई। उनकी पवित्र गउओं की एकजुटता में भी गहरा व्यंग है।
दरअसल सादा होना और सादा दिखना दो अलग-अलग चीजें है। सादा दिखने की कोशिश कभी-कभी बहुत मंहगी साबित होती है। इराक युद्ध के दौरान तेल संकट को देखते हुए प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी एक बार ताँगे में बैठकर संसद गयी। तमाम सुरक्षा खर्चो को जब जोड़ा गया तो उनकी वह सादगी मंहगें तेल से हजारो गुणा मंहगी साबित हुई। पिछले दिनों सोनिया गांधी ने भी इकोनीामी क्लास में यात्रा की थी। सुरक्षा कारणों से अगली सीटे खाली रखने से वह यात्रा स्पेशल सीट से भी मंहगी पड़ी। राजनैतिक व्यवस्थाएं मँहगी जरूरत की तरह हैं उनमें किफायतसारी कभी-कभी खासी बचकानी सिद्ध होती है। अकाल बेला में मंत्रियों कि मँहगी हवाई यात्रा और पांच सितारा होटलों के खर्चाें पर रोक लगनी ही चाहिए। लेकिन क्या इन खर्चो पर रोक से ही देश की आर्थिक बदहाली पर काबू पाया जा सकता है। सरकारो के वास्तविक छिपे खर्चे जगजाहिर हैं। क्या राजनैतिक भ्रष्टाचार आज देश का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है-जिसे तमाम राजनैतिक दलों ने लगभग आत्मसात कर लिया है। ऐसे में मूल मुद्दो को नकार कर कुछ दिखावटी मुद्दो के इर्दगिर्द केन्द्रित होना क्या बौद्धिक दिवालियापन नहीं है? क्या सुखराम ने अरबों रूपये किसी किफायतसारी के तहत कमाये थे। सादगी अपने आप में बड़ा मूल्य है, बशर्ते वह हमारे राजनैतिक आचरण का अंग हो। इसके अभाव में तमाम इमानदार प्रयास क्या हाॅली-काउ बनने की कोशिश भर नहीं हैं?

शनिवार, 19 सितंबर 2009

दाँत माँजते हुए

कितना समझदार है
मेरा बड़ा बेटा
अभी से जान गया है
कि खाने के लिए नहीं
दिखाने के लिए
माँजे जाते हैं दाँत।

नमक

ज़िन्दगी और चीज़ों के बीच
दिन-ब-दिन मँहगे होते व्यापार में
आज भी नमक सस्ता है

इसीलिए बचाया जा सकता है
मालिक की हलाली के बाद भी
अपने-अपने हिस्से का नमक
आत्मा के समूचे नमकीन स्वाद के लिए

सोमवार, 22 जून 2009

प्रेम में

प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है  काँपता है
और शिथिल हो जाता है

प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार

एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में

सोमवार, 1 जून 2009

ख़तरा

अब मैं आपको कैसे समझाऊँ
हर ख़तरे की शुरुआत यहीं से
इसी नामालूम ढंग से

गृहस्थ की भागमभाग में
एक आदमी भूल रहा है अक्सर
देहरी पर खड़े बच्चे की
मुस्कान का उत्तर

एक पढ़ा-लिखा आदमी
रोज़-रोज़ जा रहा है दफ़्तर
सिटी बस में भेड़-बकरियों की तरह ठुँसकर

एक आदमी आगे बढ़ रहा है चुपचाप
अनदेखी करते हुए
सड़क पर कुचली लाश को

मौसम को बेमानी करते हुए
एक आदमी गलत-सलत कर रहा है
पेड़ पात फूलों के मायने

एक आदमी व्यग्र है
निचोड़ लेने को आख़िरी बूँद
बादल की कूख से

सोमवार, 25 मई 2009

अन्तिम अरदास

लौटते हुए कवि
लौटा देता है स्रष्टा को
दिक् और काल
तुकबन्दी की पुरानी आदत
कला और साँस
मिट्टी और नियति

मृत्यु के चरम समय में
कवि करता है अरदास
धर्मगुरुओं की तरह
उसे मिले एक और क्षण
एक और साँस
जीवन सूत्र को जोड़ने के लिए

लेकिन यह पढ़कर
मत मान बैठना कि
ब्रह्माण्ड के विस्तार के लिए
केवल कवि उत्तरदायी है
और ब्रह्माण्ड तथा मूर्खता का
नहीं है कोई ओर-छोर

यदि तुम ऐसा करोगे
तो चूकोगे स्वयं ही
ठीक प्लेटो की तरह
जिसने ख़ारिज करना चाहा
कवियों को अपने गणतंत्र से

बहुत रहस्यमय है और जटिल भी
लेने और लौटाने की प्रक्रिया
चीजे़ं अक्सर नहीं दिखाती उन रंगों को
जिन्हें वे स्वीकार कर रही होती हैं
चीजे़ हमेषा दिखती हैं
अपनी अस्वीकृति के रंगों में ही

एक कौंध की तरह है
सच्चे कवि का होना
जिसके सघन प्रकाष में
हम फिर-फिर दोहराते हैं
जीवन का मूल-पाठ

लौटते हुए कवि ख़र्च कर देता है
अपने आपको पूरी तरह
ताकि अन्तिम उजास में
फिर से दिख जाये
जीवन का होना
जीवन का जादू-टोना

तुम इसे मोक्ष कहो
यह ज़रूरी नहीं है

अन्य के प्रति

पुराणों में निहित सारतत्व को लेकर प्रसिद्ध सूक्ति है कि-
अष्टादश पुराणस्य, व्यासस्य वचनम् द्वयं,
परोपकाराय पुण्यायाः पापाय परपीड़नम्।
अर्थात अठारह पुराणों का सार महर्षि वेद व्यास के इन दो वचनों में समाया है कि परोपकार ही सबसे बड़ा पुण्य और पर पीड़ा ही सबसे बड़ा पाप है। भारत में धुर वैदिक काल से यह धारणा बलवती रही है कि अन्य परमात्मा स्वरूप है। अतः अन्य के प्रति हित भाव ही धर्म और अहित भाव ही अधर्म है।
लेकिन इस मान्यता के ठीक विपरीत प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक ज्याँ पाल सात्र्र का कथन है कि - ’द अदर इज हेल’। दूसरा ही नरक है। सात्र्र के जीवन काल में और उसके बाद भी उनका यह कथन बौद्धिकों के बीच खासा चर्चित रहा कि जीवन की नारकीय स्थितियों के लिए केवल अन्यत्व उत्तरदायी है।
परस्पर विरोधी लगते ये कथन क्या पूर्व और पश्चिम की दो भिन्न जीवन दृष्टियों के परिचायक है या ये अपने विरोधी स्वरों में जीवन सत्य के दो भिन्न आयामों की ओर इशारा कर रहे है? इन कथनों में निहीत आशय को समझनें के लिए हमें गीता के उस संदर्भ को समझना होगा जहाँ श्रीकृष्ण  अर्जुन को जीवन का मर्म समझातें हुए कहते है कि स्वधर्म के निर्वाह में ही कल्याण है। अन्य का महान धर्म भी हानि का कारक है। बल्कि कृष्ण तो यहाँ तक कहते है कि अन्य के महान धर्म मंे जीने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना भी श्रेयस्कर है।
‘स्व‘ और ‘पर‘ के इस रहस्य को सुलझाने के लिए हमें सृष्टि विषयक अग्नि-सोमात्मिका वैदिक अवधारणा  को समझना होगा। जिसके अनुसार सृष्टि मूलतः अग्नि और सोम तत्वों के सह-समन्वय का परिणाम है। अग्नि विस्तार एवं सोम संकोच तत्व का प्रतिनिधि है। हमारे चारों ओंर तमाम जैविक इकाइयां जिस तरह फूल फल रही है, विकसित हो रही है वह अग्नि तत्व का कार्य है। लेकिन ये तमाम इकाइयां अपने विशिष्ट स्वरूप में निबद्ध है  और प्रत्येक इकाई का अपना एक सुनिश्चित गठन है- यह सोम तत्व की महिमा है। इन्ही तत्वों के सह-समन्वय से आगे चलकर सृष्टि विकास के क्रम में दो तरह की इकाइयां विनिर्मित हुई। पहली अग्निधर्म इकाई, जिसमें अग्नि प्रमुख तत्व है, सोम गौण। दूसरी सोमधर्मी इकाई जिसमे सोम प्रमुख तत्व है, अग्नि गौण। दोनो में है दोनो ही लेकिन नियामक और अनुसरणकत्र्ता के रूप में वरीयता और गौणत्व की भिन्नता है।
अग्निधर्मी इकाईं में अग्नि ’स्व’ का  और सोम ’परतत्व’ का पोषक है। क्रिया के स्तर पर अग्नि धर्म इकाई में अग्नि नियामक तत्व है, सोम अनुसरणकर्ता। ठीक इसी तरह सोमधर्मी इकाई में सोम नेतृत्व करता है और अग्नि उसका अनुसरण। अग्नि जहाँ चीजों का विस्तार करता है वहीं सोम उन्हे पुष्ट करता है। दोनों के इस सह-समन्वय से ही सृष्टि फल-फूल रही है।
सृष्टि विकास का कार्य तभी तक संभव है, जब तक ये दोनो तत्व एक दूसरे का सहयोग करते हुए अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करतें रहें। अर्थात मुख्य हो या गौण भूमिका अग्नि अपने विस्तार धर्म का और सोम अपने पुष्टि धर्म का पालन करते चले। इसके विपरीत स्थिति में अग्नि सोम का और सोम अग्नि का अनुकरण करने लगते है। उस स्थिति के आते ही न केवल सृष्टि विकास बाधित होता है बल्कि वह प्रक्रिया अततः दोनों के नाश का कारण भी बनती है।
इस तरह अस्तित्वगत सच्चाई के लिए अन्य का होना एक आवश्यक शर्त हैं। अस्तित्व है तो मूल के साथ ही अन्य भी उसमें पूरक की तरह अवश्य होगा। यदि अन्य नहीं बचा तो अस्तित्व भी नहीं बचेगा। अस्तित्व के लिए अन्य अपरिहार्य है। और यदि ऐसा है तो अस्तित्व संरक्षण के लिए जीवन में स्वधर्म का पालन करते हुए अन्य का हित चिन्तन भी परमावश्यक है  क्योंकि अनुकूल स्थिति में अन्य के प्रति किया गया जीवन व्यवहार ही प्रतिकूल स्थित में स्व के प्रति अन्य का व्यवहार तय करता है।
लेकिन यहीं उस  सूक्ष्म भेद को भी समझना आवश्यक है कि अन्य का अनुसरण एवं अन्य का अनुकरण दो भिन्न स्थितियां है। अनुसरण में हम जहाँ अन्य का सहयोग करते है वहीं अनुकरण में अन्य की वृत्ति का पालन करने लगते है। अन्य का सहयोग और अन्य की नकल निश्चय ही दो भिन्न बातें है। अन्य का सहयोग जीवन की बुनियादी जरूरत है। लेकिन अन्य का अनुकरण किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं। श्रीकृष्ण ने इसी स्थिति को अन्य के महान धर्म में भी हानि और सात्र्र ने अन्य का नरक कहा है। 

मंगलवार, 12 मई 2009

माँ

मेरे लिए माँ को जानना
जख्म के बीचों बीच से गुजरना है।

आज ही बड़े तड़के
मुझे माँ का खयाल आया
चूल्हे की मंद आग पर
बटलोही में सीझती
माँ हौले-हौले गुनगुना रही थी
चपाती के गोल फूले पेट पर चमकता
उनका बड़ा काला मस्सा
मंद-मंद हँस रहा था
ब्यालू करते हुए मैं खुश था
माँ का होना
ब्यालू का मुकम्मिल होना है


बड़े तड़के ही मैं लौटा था
गूगन कहार की गाय को बिवाकर
ब्याने के पहले की पीड़ा से छटपटाती
हाँफती-काँपती थरथराती
रंभाती डकराती वह गाय
तड़पती सदी के आखिरी मुहाने पर पहुँच
एक सुन्दर सलौने बछड़े में बदल गयी
लहू कीच-कादे से सनी
एक आत्मीय आग्रही हौंक
किलक कर उठी
और बाड़े को फाँद मेड़ पर आ गई
जहाँ दूब थी हरी-हरी
हरी-भरी कल्ले फोड़ती
खुश खिली-खिली सी

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

अभिलाषा

‘जन का, जन के द्वारा, 
और जन के लिए’
चमकता है संसद की दीवार पे लिखा
लिंकन का प्रसिद्ध सूत्रवाक्य
गण और तंत्र की गरिमा से दीप्त

मेरी अभिलाषा है
इसका मर्म बिंधे मेरे राष्ट्र के प्राणों में
गणतंत्र की गुनगुनी धूप में

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

ग़ज़ल

आग की आँख में पानी की तरह।
आँख का नूर निग्हेबानी की तरह।
हर हथेली में रस्म जि़न्दा है,
दोस्त रिश्तों की रवानी की तरह।
रेत में दूब, दूब में दरिया
एक मुसलसल–सी कहानी की तरह।
धूप धरती की पाँव बच्चे का,
सुर्ख़ सूरज पे निशानी की तरह।
आँत में रात है ब्यालू का बखत,
रोटियाँ रात की रानी की तरह।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

मातृत्व की महिमा से छल

एटा जेल में हिरासत में रह रहे अपने पुत्र वरूण गाँधी से मिलने के लिए पहुँची मेनका गाँधी को जेल प्रशासन ने नियमो का हवाला देते हुए मिलने नहीं दिया। राजनैतिक कारणो के चलते मायावती सरकार ने जिस तरह वरूण गाँधी पर रासुका लगाया है, उसे लेकर व्यथित और नाराज़ चल रही मेनका गाँधी का इससे और अधिक नाराज़ होना स्वाभाविक था। उन्होने खिन्न होकर कहा कि मायावती खुद माँ होती तो बेटे से नहीं मिलने देने के दर्द को जानती मेनका के इस कथन पर मायावती ने तुरन्त पलटवार किया कि माँ की ममता से सराबोर होने के लिए माँ होना जरूरी नहीं है। उन्होने मदर टेरेसा का उदाहरण दिया जिन्होने माँ नहीं होने के बावजूद करोड़ो लोगो को माँ का प्यार दिया। मायावती का कहना था कि उन्हे करोड़ो माँओं की चिन्ता थी इसलिए उन्होने वरूण पर रासुका लगाया है। वे ये कहने से भी नहीं चूकी कि मेनका गाँधी ने अपने बेटे को अच्छे संस्कार दिये होते तो वह आज जेल की सलाखों के पीछे नहीं होता। राज्य में कानून व्यवस्था बनाये रखने की अहमियत पर जोर देते हुए उन्होने कहा कि वे इसमें किसी को कोई रियायत नहीं देगी–भले ही वह किसी राजा–महाराजा का बेटा हो या गाँधी परिवार का। इस तरह मायावती और मेनका दोनो ने वरूण गाँधी की आड़ में अपनी–अपनी तरह मातृत्व को परिभाषित किया।  एक माँ के रूप में मेनका की तकलीफ समझी जा सकती है। ऐसी कौनसी माँ होगी जो अपने बेटे को जेल की सलाखो के पीछे देखना चाहेगी। उस पर सितम यह कि जेल की सामान्य परम्परा के विपरीत उसे अपने बेटे से मिलने तक नहीं दिया जाए। वरूण गाँधी का अपराध चाहे जितना गम्भीर हो लेकिन है वह जबानदराजी ही। यदि ऐसे बयानो के आधार पर ही राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू होता तो आज देश के तीन चौथाई से अधिक राजनितिज्ञ जेलो में सड़ रहे होते। स्वयं मायावती की पार्टी के ही कितने विधायक इससे अधिक जघन्य कृत्य करके छुट्टा घूम रहे हैं–बल्कि कुछ तो मंत्री पद को भी सुशोभित कर रहे है। ऐस में मेनका गाँधी की तकलीफ जायज है।  लेकिन मातृत्व को लेकर मेनका गाँधी ने मायावती को जो उलाहना दिया है वह उलाहने से अधिक गाली है। यह एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री का अपमान है। उसकी कूख को लेकर भद्दी से भद्दी गाली। मेनका ने ऐसा कह कर अपनी भड़ास भले ही निकाल ली हो लेकिन इस बयान से उनका कद घटा है। मेनका वरूण की माँ होने के साथ–साथ एक जनप्रतिनिधि और देश की जानी–मानी जन्तु–पे्रमी भी है। संजय गाँधी की असामयिक मृत्यु के बाद राजनीति में सक्रिय रहते भी उन्होने जीव–जन्तुओं के प्रति जो करूणा और लगाव दर्शाया है वह उनके स्त्रीत्व को माँ की गरिमा से दीप्त करता है। लेकिन वरूण की गिरतारी के बाद आया उनका बयान उन्हे एक मामूली माँ सिद्ध करता है। हर माँ की तरह वरूण मेनका को प्यारे हों और जेल अधिकारियो द्वारा उनके न मिलने देने को लेकर वे व्यथित हों यह तो समझ में आता है, लेकिन सम्प्रदायों को भड़काने वाले वरूण के बयान में उन्हे कोई खोट ही नज़र नहीं आये यह हरगिज़ समझ में नहीं आता। इसमें उनके निहितार्थ साफ–साफ झलकते है। जो मेनका गाँधी दुधारू पशुओं के दूध पीने को खून पीने के बराबर मानती रही हो (शिशु पशुओं के लिए दूध की मात्रा कम पड़ जाने के कारण) उन्हे वरूण गाँधी का हिंस्र साम्प्रदायिक बयान विचलित तक नहीं करता। मूक जीव–जन्तुओ के प्रति गहरी सहानुभूति महसूस करने वाली मेनका गाँधी की दृष्टि में क्या वरूण गाँधी के द्वारा प्रताडि़त समुदाय के लोग साँप और बिच्छुओं से भी बदतर हैं? खेद की बात है कि वरूण एपिसोड में मेनका गाँधी ने कुछ भी ऐसा कहा और किया नहीं जो एक माँ के रूप में उनकी वृहत्तर भूमिका को दशार्ता हो। इस समूचे प्रकरण में उन्होने अपने आपको पुत्र मोह से ग्रस्त एक अदना माँ सिद्ध किया है। जो अपने जनप्रतिनिधित्व के दायित्वों और सहज प्राणी प्रेम तक को बिसरा रही है। इतिहास में पन्ना धाय का उदाहरण दर्ज है जो अपने त्याग के कारण एक सामान्य माँ की भूमिका से ऊपर उठकर राष्ट्र माँ का गौरवपूर्ण पद हासिल करती है। इसके विपरीत वरूण मामले में मेनका गाँधी ने काफी कुछ खोया है। मुक्तिबोध ने कामायनी के अपने पुर्नमूल्याकन में श्रद्धा के चरित को लेकर एक महत्वपूण प्रश्न उठाया है कि वह सर्वत्र एक औसत नारी का सा व्यवहार करती है। उसके चरित में विश्व मानवी का कोई आयाम नहीं है। क्या वरूण प्रकरण में यहीं प्रश्न मेनका गाँधी की जनप्रतिनिधि की भूमिका को लेकर नहीं पूछा जाना चाहिए?  
अपने पलटवार में मायावती मेनका गाँधी पर हर तरह भारी पड़ी है। उनके बयान के तमाम मुद्दे गौर तलब है। निश्चय ही मातृत्व का गहन आशय सन्तति प्रजनन तक सीमित नहीं है। वह तो केवल शुरूआत है उसकी असली महिमा तो मातृत्व की वृहत्तर व्याप्ति में है। मदर टेरेसा उस वृहत्तर व्याप्ति की बेहतरीन मिसाल है। उन्होने अपने मातृत्व को पीडि़त मानवता पर निछावर कर दिया और इस तरह महिमाशाली माँ के चरित को उपलब्ध किया। इसीलिए कूख से जन्म नहीं देने के उपरान्त भी वे करोड़ो की माँ बनी। मायावती का यह पलटवार भी गौर के काबिल है कि मेनका ने एक अच्छी माँ के संस्कार दिये होते तो वरूण आज जेल कि सलाखो के पीछे नहीं होता। राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर किसी को कोई रियायत नहीं देने कि बात भी उनके प्रशासकीय दमखम को दर्शाती है। अपने ही दल के सांसद और विधायको के विरूद्ध उन्होने कठोर कानूनी कार्यवाही और सोनिया गाँधी की रैली को प्रतिबंधित कर मायावती ने जिस साहस और निडरता का परिचय दिया वह अपनी मिसाल आप है।  
लेकिन मायावती का यह कहना कि उन्हे करोड़ो माँओं की फिक्र थी इसलिए उन्होने वरुण गाँधी पर रासुका लगाया – किसी के गले नहीं उतरता। असलियत यहीं है कि मुलायम सिंह की और लगातार झुकते मुस्लिम मतदाताओं की रोकथाम के लिए ही उन्होने वरूण गाँधी पर रासुका आयद किया। आज मायावती वरूण गाँधी पर रासुका लगाने को जायज ठहराते हुए मेनका गाँधी को सीख दे रही है कि उन्होने अपने बेटे को अच्छे संस्कार नहीं दिये इसलिए वह जेल में है लेकिन लगता है मायावती आपबीती भूल गई हैं। 1991 में मायावती ने बुलन्दशहर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। मतदान वाले दिन मायावती जब एक गाँव में मतदान केन्द्र पर पहुँची तो उन्हे लगा कि फर्जी मतदान हो रहा है। आवेश में मायावती ने आव देखा न ताव और पीठासीन अधिकारी को गालियाँ बकते हुए थप्पड़ मार दिया। उत्तरप्रदेश में उस समय कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार ने मायावती के विरूद्ध सरकारी काम में बाधा डालने और लोक सेवक से मारपीट करने को लेकर आपराधिक मुकदमा दर्ज किया और बाकायदा रासुका लगाया। मायावती को इससे लम्बे समय तक जेल में रहना पड़ा। वे जब जेल में परेशान हो गई तब बसपा प्रमुख कांशीराम को प्रधानमंत्री नरसिंह राव से मिलकर मायावती की रिहाई के लिए गुहार लगानी पड़ी। उस समय लोकसभा में बसपा के तीन सदस्य थे। जो अल्पमत राव सरकार का समर्थन कर रहे थे। इसी दबाव के चलते नरसिंह राव ने कल्याण सिंह से अपील की कि वे एक दलित की बेटी पर लगाये गये रासुका को हटालें। राव के अनुरोध पर कल्याण सिंह ने जब रासुका हटाया तब कहीं जाकर मायावती जेल की सलाखो से बाहर आ पाई। रासुका का इस्तेमाल राजनेता अक्सर अपने निहित हितों के लिए करते रहे हैं। लेकिन 18 साल पुरानी आपबीती को भूलकर मायावती आज वरूण गाँधी पर लगाये रासुका को जायज ठहरा रही है।  
यहीं वह कोण है जहाँ तमाम चीजो के मायने बदल जाते है। अपने निजि जीवन और राजकीय कृत्य में मायावती ने एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिससे उनका मातृत्व से सराबोर होने वाला चरित उजागर हो। इसके विपरीत सहज मानवीय करूणा और कृतज्ञता से वे कोसो दूर है। एक चतुर और अचूक अवसरवादी राजनीतिज्ञ की तरह वे केवल चीजों को अपने हक में इस्तेमाल करना जानती है। मदर टेरेसा के उदाहरण को भी मायावती ने इस्तेमाल किया है। उनके आदर्शो को जीने में उनकी कोई आस्था नहीं है। वे हर चीज का इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने में और अपने आप को बचाने में करती रही है। इसमें बाधा आने पर वे किसी भी हद तक जा सकती है। वह पीठासीन अधिकारी को गाली बकते हुए थप्पड़ मारना हो या अपनी ही पार्टी के सांसद और विधायको को जेल भिजवाना। मेनका गाँधी हो या मायावती दोनो ही वरूण मामले में मातृत्व की महिमा से छल कर रही है। उनके लिए मातृत्व जीने का गौरव पूर्ण आयाम नहीं बल्कि कुछ हासिल करने का जरिया भर है।




गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

जीवन का जादू

साँसो ने जल से जाना
जीवन का जादू
‘जायते इति’
‘लीयते इति’
आती हुई साँस सृष्टि है
जाती हुई प्रलय
शिव ने पार्वती से कहा
तू इनके मध्य ठहर जा
अमृत को उपलब्ध हो जाएगी।

घर

उजाड़–बियाबान में बनाया मैंने
एक माटी का घर
घरों से घिरी दुनिया
कुछ और भरी–पूरी हुई

अगले दिन मैंने पूछी
रहमत चाचा की खैर–कुशल
सुदूर पड़ौस तक फैला
मेरा घर–द्वार

मैं जब–जब सोचता हूँ
तमाम चीज़ों तमाम लोगों के बारे में
तो गाँव, जिला, प्रान्त और राष्ट्र की सीमा में ही
सिमट कर नहीं रह जाता घर–संसार

मैं रोज प्रार्थना करता हूँ 
‘हे पिता विश्व का कल्याण करो 
सभी को आरोग्य दो! अभय दो! सन्मति दो!’

मेरी दिली ख्वाहिश है
कि अगली बार मैं चीखूँ 
आकाशगंगा के सीमान्त पे 
ताकि गैलेक्सियों के आर–पार बिखर जाएं
घरों की सरहदें

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

परिचय

श्री सवाई सिंह शेखावत

जयपुर जिले के ललाणा गांव में  संवत 2003  में जन्मे सवाई सिंह शेखावत  ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक कवि के रूप में की। पिछले लगभग तीस वर्षों से रचनाशील शेखावत ने कुछ कहानियाँ और आलोचनात्मक लेख भी लिखे। उन्होंने हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी में भी कहानियाँ और ग़ज़लें लिखीं। उनकी पहली राजस्थानी कहानी कूँपळ काफ़ी चर्चित रही और तेलुगू तथा हिन्दी में अनूदित हुई।
उनके पहले दोनों कविता–संग्रह पुरस्कृत हुए। 
घर के भीतर घर 1987, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुमनेश जोशी पुरस्कार से तथा पुराना डाकघर और अन्य कविताएँ 1994, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुधीन्द्र पुरस्कार से पुरस्कृत। उनका तीसरा कविता–संग्रह दीर्घायु हैं मृतक अपनी अनूठी व्यंजनात्मकता के कारण साहित्यिक हलके में खासा चर्चित रहा। 
शेखावत ने अनियतकालीन साहित्यिक अख़बार बखत तथा राजस्थान सरकार के विकास विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका राजस्थान विकास का भी कुछ वर्षों तक सम्पादन किया।
इन दिनों शेखावत अपने उपन्यास का अंतिम पाठ तैयार कर रहे हैं।