शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

दरअसल

दरअसल उजाला ओढ़ने को
हम इस कदर उतावले हैं
कि धूप के इरादों की नेकनीयती पर
शुब्हा कर ही नहीं पाते
हर बार चमाचम सूरज की चाह में
हम ग़लत मौसम चुनते हैं
और मार खाते हैं

वे हमारी कमजोरी से वाकिफ़ हैं
और चौगिर्द फैले अँधेरे के खिलाफ़
हमें हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं

उन्हें मालूम है
घुप्प अँधेरी रात में
मशाल दिखा कर ही
पतंगे को बरगलाया जा सकता है
मर मिटने को
दीवाना बनाया जा सकता है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

शहर और शगल

देखा आपने
उसे लेकर
समूचा शहर किस कदर परेशान है
गोया वह आदमी नहीं आबरू है
जिसकी फ़िक्र हर शख़्स को है

अब आप देखिए
कल तक उन आबदार अंगूरी आँखों में
वह महज घटिया और बेहूदा क़िस्म की
एक फ़िजूल-सी चीज़ था
लेकिन ऐलान होते ही
उन्होंने उसे नाबदान से उठाया
और बेशकीमती गुलदस्ते में सजा कर
ड्राइंग रूम में रख दिया

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

पेड़ की तरह

एक पेड़ की तरह हो
हम सबका जीना
उम्र भर का हरापन
ऋतुओं का प्राणदायी आवर्तन
कुछ रंग कुछ गंध
कुछ फूल-फल
शीतलता जीवन की
और भरपूर समिधाएं

कब आयेगा वह दिन
जब काटे जाने पर भी 
नहीं जागेगी मुझमें 
बदला लेने की इच्छा