मंगलवार, 12 मई 2009

माँ

मेरे लिए माँ को जानना
जख्म के बीचों बीच से गुजरना है।

आज ही बड़े तड़के
मुझे माँ का खयाल आया
चूल्हे की मंद आग पर
बटलोही में सीझती
माँ हौले-हौले गुनगुना रही थी
चपाती के गोल फूले पेट पर चमकता
उनका बड़ा काला मस्सा
मंद-मंद हँस रहा था
ब्यालू करते हुए मैं खुश था
माँ का होना
ब्यालू का मुकम्मिल होना है


बड़े तड़के ही मैं लौटा था
गूगन कहार की गाय को बिवाकर
ब्याने के पहले की पीड़ा से छटपटाती
हाँफती-काँपती थरथराती
रंभाती डकराती वह गाय
तड़पती सदी के आखिरी मुहाने पर पहुँच
एक सुन्दर सलौने बछड़े में बदल गयी
लहू कीच-कादे से सनी
एक आत्मीय आग्रही हौंक
किलक कर उठी
और बाड़े को फाँद मेड़ पर आ गई
जहाँ दूब थी हरी-हरी
हरी-भरी कल्ले फोड़ती
खुश खिली-खिली सी

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