प्रेम करते पुरुष के लहू में
चीखते हैं भेड़िये
उग आती हैं दाढ़ें
पंजे और नाखून
प्यार में पुरुष बेतरह गुर्राता है
हाँफता है काँपता है
और शिथिल हो जाता है
प्रेम करने की कला
केवल स्त्री जानती है
वह बेसुध भीगती है
प्रेम की बारिश में
फिर कीलित कर देती है उस क्षण को
देखी है कभी ग्लेशियर से फूटती
पीन उज्ज्वल जल-धार
एक स्त्री ही गुदवा सकती है
अपने वक्षस्थल पर
अपने प्रेमी का नाम
नीले हरफ़ों में
रब क्या कहूँ इतनी बेबाक भावमय आभिव्यक्ति के लिये बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रयास |
जवाब देंहटाएंजरुरी नहीं आपके पिता जी इन्टरनेट पर आये | आप ही उनकी रचनाओं को इस माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का कार्य करते रहे |