सोमवार, 21 सितंबर 2009

शशि थरूर के गरूर के बहाने

विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर का गरूर दोतरफा मार करने वाला है। जो लोग केवल कैटल-क्लास में उलझ कर रह गये है वे वाकई बहुत मासूम है। अलबत्ता कैटल-क्लास वाली बात थरूर ने कही भी नहीं। वह तो ट्विटर साइट में एक पत्रकार ने उनके मुँह में डाली। थरूर सहज होते तो पत्रकार के व्यंग को अमिधा में बदल सकते थे। एक अखबारी रिर्पोटिंग के बाद प्रणव मुखर्जी ने एम. एस. कृष्णा और थरूर को जिस तरह हड़काया और मंहगे पाँच सितारा होटल को छोड़कर सरकारी आवास में जाने की सीख दी उससे थरूर का असहज होना स्वाभाविक था। उन्होने उसी तंज में जवाब दिया। एक राजस्थानी कहावत के अनुसार वह ‘भाव के भाव सलटाने’ वाली बात थी। थरूर ने अपनी और से न उसमें कुछ जोड़ा और न घटाया। यह हिन्दुस्तान की अवाम के लिए गाली है तो है। अलबत्ता इकाओंओमी-क्लास में हवाई सफर करने वालों को जो कुलीन तबका मवेशी में शुमार कर रहा है, वह सेन गुप्ता आयोंग की रिपोर्ट वाले 80 फीसदी हिन्दुस्तानी अवाम को (जो बीस रूपये रोज में गुजारा करने को विवश है) किन कीडे़-मकोड़ों में शुमार करेगा यह सोचकर कलेजा काँप जाता है।
थरूर ने ट्विटर पर अफसोस जताया है कि कैटल-क्लास उनकी डिलीवरी नहीं थी वह शब्द पत्रकार की ओंर से आया था। उस पर जिस तरह का बावेला मचा है, वह बेतुका है। उन्होने यह भी लिखा कि उनका आशय इकाॅनोमी-क्लास वालों को ढोर-डंगर बताने का हरगिज नहीं था। यह टिप्पणी तो उन्होंने एयरलाइन्स को लेकर की थी जो भेड़-बकरियों की तरह ठूँसकर यात्रियों को ले जाती हैं। उन्होने लिखा कि मुझे बताया गया कि मलयालम में उसका अनुवाद और भी बुरा है,ं खासतौर पर जब वह बिना सन्दर्भ के कहा जाए। लिहाजा मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि मुझे लोगो को ऐसा अवसर नहीं देना चाहिए था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनकी तरफदारी करते हुए कहा है कि भारतीयों को अंग्रेजी का हंसी-ठठ्ा समझ में नहीं आया। बात भी सच है कि नकचढ़ी अंग्रेजी का मुहावरा भारतीय लोगांे को समझ में आयें भी कैसे? अंग्रेजीदा तारीफ में भी अपनी हिकारत जाहिर करने से बाज नहीं आते। मुम्बई कि झोपड़पट्टी में रह कर अपने जीवनानुभव से कौन बनेगा करोड़पती प्रतियोगिता को फतह करने वाले संघर्षशील युवक के जीवन पर बनी फिल्म के टाइटल के लिए भी उनके पास ‘स्लमडॅाग मिलेनेरियम’ जैसा शब्द है। ऐस लोगो को गुदड़ी का लाल कहने के अभ्यासी भारतीयों को ऐसा ठठ्ठा समझ में नहीं आ सकता।
लेकिन तमाम बातों के बावजूद थरूर को बरी नहीं किया जा सकता। वे एक एरिस्टोकेट डिप्लोमेट होने के साथ-साथ एक लेखक भी है, जिससे संवेदशील होने की उम्मीद की जाती है। फिर थरूर जब तब मानववाद के समर्थन में लेख भी लिखते रहे है। उनकी इस राजनैतिक मानवीय कूवत की कद्र करते हुए भारत सरकार ने उनका नाम संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पद के लिए प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या इस मामले में उनसे श्लील अभिव्यक्ति की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। खास तौर जब समूचा मुल्क अकाल की चपेट में हो और आम आदमी का जीना दूभर हो गया हो तो ऐसे में एक जन-प्रतिनिधि से किफायतसारी की बात कहना क्या गुनाह में शामिल हैं?
लेकिन बात असली नुक्ते की। टिवट्र साईट पर पत्रकार ने थरूर से पूछा था कि क्या अगले केरल दौर में वे कैटल-क्लास में सफर करना पंसद करेंगें? थरूर का जवाब था कि निश्चित तौर पर, हमारी पवित्र गउओं में एकजुटता दिखाते हुए कैटल-क्लास में ही। अब लोग है कि उनके संवाद के उत्तर-पद में ही उलझ कर रह गये है। जबकि असल बात उसके पूर्व-पद में है कि पवित्र गउओं से एकजुटता दर्शित करने के लिए कैटल-क्लास में सफर करना उनकी विवशता है। खेद की बात है कि उनके कथन की व्यजंना और निहितार्थ की ओर किसी का ध्यान नहीं गया- न मिडिया का, न कांग्रेस का और न विपक्ष का- कि पवित्र गउओं में एकजुटता दिखाना क्यों लाजिमी है और कौन है ये पवित्र गउएं। क्या प्रवण मुखर्जी? क्या सोनिया गांधी? क्या वे तमाम संवेदशील लोग जो देश की मौजूदा हालत में किफायतदारी पर जोर देना उचित समझते है। मामला यहीं तक सीमित नहीं है। बात बारीक है संवाद के पूर्व-पद का तंज गहरी चिकोटी काटने वाला है। शशि थरूर लाख अंग्रेजीदा कुलीन तबके से सम्बद्ध हो वे देश के ख्यातिनामा बुद्धिजीवी है जिन्हाने इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की कमी खामियों पर भी कलम चलाने में हिचक नहीं दिखाई। उनकी पवित्र गउओं की एकजुटता में भी गहरा व्यंग है।
दरअसल सादा होना और सादा दिखना दो अलग-अलग चीजें है। सादा दिखने की कोशिश कभी-कभी बहुत मंहगी साबित होती है। इराक युद्ध के दौरान तेल संकट को देखते हुए प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी एक बार ताँगे में बैठकर संसद गयी। तमाम सुरक्षा खर्चो को जब जोड़ा गया तो उनकी वह सादगी मंहगें तेल से हजारो गुणा मंहगी साबित हुई। पिछले दिनों सोनिया गांधी ने भी इकोनीामी क्लास में यात्रा की थी। सुरक्षा कारणों से अगली सीटे खाली रखने से वह यात्रा स्पेशल सीट से भी मंहगी पड़ी। राजनैतिक व्यवस्थाएं मँहगी जरूरत की तरह हैं उनमें किफायतसारी कभी-कभी खासी बचकानी सिद्ध होती है। अकाल बेला में मंत्रियों कि मँहगी हवाई यात्रा और पांच सितारा होटलों के खर्चाें पर रोक लगनी ही चाहिए। लेकिन क्या इन खर्चो पर रोक से ही देश की आर्थिक बदहाली पर काबू पाया जा सकता है। सरकारो के वास्तविक छिपे खर्चे जगजाहिर हैं। क्या राजनैतिक भ्रष्टाचार आज देश का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है-जिसे तमाम राजनैतिक दलों ने लगभग आत्मसात कर लिया है। ऐसे में मूल मुद्दो को नकार कर कुछ दिखावटी मुद्दो के इर्दगिर्द केन्द्रित होना क्या बौद्धिक दिवालियापन नहीं है? क्या सुखराम ने अरबों रूपये किसी किफायतसारी के तहत कमाये थे। सादगी अपने आप में बड़ा मूल्य है, बशर्ते वह हमारे राजनैतिक आचरण का अंग हो। इसके अभाव में तमाम इमानदार प्रयास क्या हाॅली-काउ बनने की कोशिश भर नहीं हैं?

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